Main - मैं - मैं कौन हूँ ? - Who Am I ?
आज तक मैं नाम से जितने भी पुस्तक प्रकाशित हुवे हैं उन सभी पुस्तकों में लेखक ने अपना ब्याक्तिगत परिचय ही प्रस्तुत हिया है। अपना बायो.डाटा का बिबरण देना ही मैं का परिचय अर्थात आत्मकथा समझा गया। मैंने अपने मै नामक पुस्तक में सभी के उच्चारण में आने वाला '-मैं-' के बिभिन्न प्रकार का बर्णन किया है। मैं कौन है, मै कौन हूँ, मैं क्या है, मैं कितने प्रकार से है आदि को संक्षिप्त कथा के रूप में इस प्रसंग में रखा गया है।
बार-बार, अनेकों बार, समझते हुए पढ़े और तुलना करें।
एक समय की बात है। तीन नगर थे। पहला
वर्तमाननगर, दूसरा भूतनगर और तीसरा भविष्यत्नगर। तीनों नगर आपस में मिले जुले हुए से थे।
तीनों नगरों के लोगों का आपसी व्यवहार भी मिला-जुला सा था। उस नगर के लोगों का
आपसी व्यवहार भी मिला जुला हुआ सा था। उस नगर के लोगों के कर्म-क्षेत्र को गौर से
देखने पर भी कौन मनुष्य किस नगर का निवासी है यह बात ठीक-ठीक जान लेना अत्यन्त
दुरूह था। जो व्यक्ति कर्म के इस गति की गहनता को जानने के लिए इच्छुक था, जिनकी बुद्धिरूपी कुल्हाड़ी भोथी हो गई थी, उन तीनों नगरों के समूह को अपने
अपने रंगों में रंजित तथा अपने अपने तरंगों में तरंगित होकर एक अद्भुत नगरी के रूप
में स्वीकार करते है। जब कभी भी उस नगरी के लोगों को तीनों नगरों की सीमाओं का झलक
मिल जाया करता है प्रातः ठीक उसी समय प्रमाद-वश (या उस नगरी की रौनकवश) उसे
नजरअन्दाज कर दिया जाता है। इस बात को स्पष्ट रूप से समझने के लिए एक छोटा सा
उदाहरण यहां प्रस्तुत है।
भूतनगर में एक मुल्ला था। उसका नाम
गड़बड़दास था। मुल्ला गड़बड़दास के माथे में खुजली थी। वह खुजली का इलाज नहीं करवाता
था। अपनी बेचैनी को दूर करने के लिए वह दोनों हाथों से सिर खुजलाया करता था। एक
दिन वह वर्तमाननगर के किसी सेठ के बड़े गोदाम में झाडू लगाने पहुंचा। रात्रि का समय
था। सफाई के कुछ कसर बाकी थी। संयोग से उसी समय बिजली गुल हो गई। चारों तरफ अंधेरा
छा गया। निकलने तथा प्रवेष करने का एकमात्र रास्ता था जो अब दिखना सम्भव नहीं रहा।
सम्भवतः बल्ब फ्यूज हो गया,
ऐसा सोचकर मुल्ला गड़बड़दास ने गोदाम से निकलने के उपाय पर
विचार किया। उसके विचार का परिणाम बहुत सुन्दर था। उसने सोचा कि हम गोदाम में झाडू
लगाने का मेरा अनुभव बहुत दिनों का हो चुका है। यह गोदाम चारों तरफ से गोल है।
किसी भी तरफ यदि सीधा चल दूं तो दीवार मिल जायेगी। जब दीवार मिल जाए तो उसी के
सहारे किसी भी दिशा में चल दूंगा। इस प्रकार अन्त में तो दरवाजा मिलना ही है।
गड़बड़दास ने वैसा ही किया। वह दिवार के सहारे चलता हुआ भी दोनों हाथों से सिर
खुजलाता रहता था। इस कारण समय समय पर उसका हाथ दीवार से छूट जाया करता था। चलने का
क्रम जारी था। खुजलाने वाली बात भी बनीं रहती थी। इस प्रकार वह दरवाजे के पास
पहुंचकर भी दीवार के ही चक्कर काटता रहा। इस तरह मुल्ला गड़बड़दास उस गोदाम से नहीं
निकल सका और इसी निन्यानब्बे के चक्कर में पड़ा रहा।
भूतनगर, वर्तमाननगर और
भविष्यत्नगर तीनों में तीन तरह की अवधारणाओं वाले लोग रहते थे। भूत और भविष्यत्नगर
के लोगों का दबदबा उसी तरह रहता था। जैसे सावन भादो के महीनों में बरसाती मेढ़कों
का रहता है। इस समय दोनों नगरों के नेताओं और विद्धानों का वर्तमाननगर के किसी एक
विद्वान नेता से मुलाकात हो गई। दोनों नगरों के नेताओं ने एक साथ वर्तमाननगर के
नेता से यह प्रश्न किया कि ‘आप कौन है ?’ इस प्रश्न को सुनकर वर्तमान नगर का नेता इस प्रश्न के उत्तर के सम्बन्ध में
विचार करने लगा।
प्रश्न करने वाले के लिए ही उत्तर भी हुआ करता है तथा जो प्रश्न को भलीभांति
समझने में, उत्तर देने में, बोलने में समर्थ एवं उत्तर देने में तत्पर होता है वहीं उत्तर भी देता है।
बोलने की इच्छा होने पर जब वक्ता, श्रोता और वाक्य तीनों अविकल भाव से
समस्थिति में आ जाते है, तब वक्ता का कहा हुआ अर्थ श्रोता को समझने में आता है। प्रश्न कई तरह के होते
है तथा उत्तर देने के माध्यम भी कई है। यहां प्रश्न शब्दों में हुआ है अतः उत्तर
भी शब्द में दिया जाना अपेक्षित है। मैं तो हर तरह से सक्षम हूँ। किन्तू उत्तर दूं
या समाधान प्रस्तुत करूं ?
प्रश्न का उत्तर तो प्रायः सभी दिया करते है। यहां समाधान
की बात है, प्रश्न के मूल को समझे बिना सम्यक् समाधान प्रस्तुत करना सम्भव नहीं। प्रश्न
का उत्तर युक्तिसंगत भी क्यों न हो, यदि वह प्रश्न कर्ता के प्रश्न की
उत्पति के मूल से सम्बन्ध न रखता हो तो ह्दयग्राह्य नहीं होता। अब सोचना है कि प्रश्नकर्ता
का प्रश्न मूल से सम्बन्ध रखता है अर्थात सारगर्भित् है या यूँ ही पूछा है। इस बात
को स्पष्ट करने के लिए यदि प्रश्न कर्ता की लक्षणावृति पर भी ध्यान देते हुए विचार
किया जाय तो प्रश्न के उत्तर में देरी हो जाना सम्भव है। उसके बाद देरी से उत्तर
देने के कारणत्व प्रश्न में स्वयं अवलम्बित होने से इससे सम्बन्धित अन्य दोषजन्य प्रश्नों
के उत्तर देने में भी पर्याप्त समय खर्च होगा। फिर इस तरह के प्रश्न पर विचार करते
रहें तो जिन्दगी सोचते सोचते खत्म हो जायेगी। यदि बहुत ही जल्दी पता भी चल जाये कि
प्रश्न-कर्ता का प्रश्न मूलतः सम्बन्धित है या यूं ही पूछा गया है, तो भी उसमें कोई विशेष फर्क नहीं जान पड़ता। जैसे किसी ने पूछा कि ‘मंकी’ माने क्या है ? यहां उत्तर में ‘वानर’ तो कहना ही पड़ेगा। इसके अतिरिक्त कहीं यह भावात्मक प्रश्न हो तब भी उस प्रश्न
में प्रयुक्त शब्दों का आश्रय लेकर उसके भाव तक पहुंचा जा सकता है। इस तरह विचार
करने से हम इस निश्चय पर पहुंचते है कि फिल-हाल प्रश्न के शाब्दिक अर्थ पर ही गौर
किया जाए।
पूछा गया है कि “आप कौन है ?” अर्थात् आपका परिचय। ऐसा सम्भव है कि
मैं जिस जाति, जिस गुण, जिस क्रिया आदि से सम्बन्ध रखता हूं वहीं मेरा परिचय है, अर्थात वहीं मैं हूं। तो क्या में यह कह दूं कि मेरा नाम फलां है, मैं ब्राह्मण हूं, मैं विद्वान हूं, मै वर्तमान-नगर निवासी हूं या मैं अमुक-अमुक कार्य करता हूं ? मगर में इस बात से अच्छी तरह से भिज्ञ हूँ कि समस्त जागतिक् पदार्थ समूह को
जगत कहते है और प्रत्येक जागतिक् पदार्थ निश्चय के साथ नाम, रूप तथा स्थान के लिए हुए होता है। मैं जगत में हूं, अतः मेरा कोई नाम, रूप और स्थान अवश्य ही होगा। अब मैं प्रश्नकर्ता को यह कह दूं कि मेरा नाम
देवदत्त है। मैं इसी रूपवाला हं जो आपको देखने में आता है और मेरा स्थान भी यही है
जहां मैं खड़ा हूं। लेकिन यह उत्तर सुनकर वे यह भी कह सकते है कि “आपका नाम देवदत्त न होकर और भी हो
सकता था यह भी सम्भव है कि आपने अपना नाम छिपाकर दूसरा नाम कह दिया हो” आपका नाम चाहे जो भी हो उससे हम लोगों
को कोई भी फर्क नहीं पड़ता,
आपके नाम से मिलते-जुलते बहुत से लोग मिल जायेगें। लोग बिना
नाम के पैदा होते हैं और यहां नन्हे-मुन्ने बच्चों को किसी शब्द से सम्बोधित करते
है तो कालान्तर में नाम कहा जाता है। इस तरह यदि आप अपना परिचय देते है तो यह
भ्रामक परिचय माना जोयेगा। यह नाम तभी सत्य माना जाता जब वह जन्म के साथ मुहर लगकर
आया होता जिस नाम का वह व्यक्ति है, मुहर उसके ललाट पर होता। और फिर
मैने आपसे सत्य की अपेक्षा ही है। यदि मैं इस भ्रामक नाम की अपेक्षा करता तो क्योंकर
मैं आपसे यह पूछता कि ’’आप कौन है ?” क्यों न मैं स्वयं ही विचार कर कल्पना
के आधार पर आपका नाम गढ़ लेता ? मैं भी तो आप ही की तरह विचारवान् हूं।’
यदि मैं यह कह दूं कि मुझमें भी एक
प्रकार की मुहर लगी है कि मैं फलां का पुत्र हूं, तो यह भी झूठ साबित हो
जायेगा, क्योंकि जब मैं किसी का पुत्र हुआ तो उसी समय भिन्न-भिन्न लोगों का पौत्र, प्रपौत्र, भान्जा, भतीजा आदि भी हो गया तथा कालान्तर में किसी का पति, किसी का दामाद, किसी का पिता आदि भी हो गया। भला ऐसा बदलता हुआ मुहर किसी काम का नहीं। भिन्न-भिन्न
व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न सम्बोधनों से सम्बोधित नाम परिचय के रूप में
विश्वजनीय सत्य नहीं हो सकता। यदि झूठ ही बोलने की नौबत आती है तो क्यों न प्रश्नकर्ता
को यह कह दें कि भाई आपकों जो समझ में आता हो समझ लें, लेकिन इतना कहने पर भी फुर्सत कहां ? वह तो कहेगा कि, “यदि अपने ही मन से समझ लेना होता
तो आपसे पूछते ही क्यों ?
इसके अतिरिक्त हमलोग अपने अपने पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर
आपके बारे में अनुमान लगाना नहीं चाहते। यदि हम लोग ऐसा करेंगे तो अनुमानजन्य आका
वह परिचय हम लोगों की बुद्धि का परिचय हो जायेगा। हमलोग तो आपको किसी न किसी रूप
में जानते ही है। हम लोगों ने आपको इस वर्तमाननगर में विचित्र स्थिति में देखकर यह
जानने की जिज्ञासा प्रकट की है कि आप कौन है ?”
इस प्रकार मैं
वर्तमान् नगरवासी विचार करता हूं कि नाम के माध्यम से अपना परिचय देना उसी प्रकार
ठीक नहीं है, जिस प्रकार रूप के माध्यम से, क्योंकि रूप भी भिन्न भिन्न है। जैसे
कोई स्त्री किसी के लिए पत्नी रूप में है तो उसे बहन के रूप में नहीं दिखती। तथा पुत्र
के लिए वह दृष्टि लोप हो जाती है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति का रूप प्रत्येक
व्यक्ति विशेष के लिए भिन्न-भिन्न हो जाता है। इस रूप को अपेक्षकृत कम स्थायी
मुद्रा कहते है। जैसे गुस्से में होना, मुस्कान की स्थिति, भयभीत होना, गम्भीर रूप में होना आदि।
जहां तक स्थान
की बात है, मैं कोई मूर्ति तो नहीं जो हमेसा वहीं खड़ा रहूं। स्थान भी समय-समय पर बदलता
रहता है। अतः यह स्थान मेरा है इस प्रकार परिचय प्रस्तुत करना भी सर्वथा
अनुरूपयुक्त हो जाता है। जब समस्त जागतिक पदार्थ समूह मिलकर यह जगत है, मैं भी जागतिक पदार्थ हूं और जगत् की जो परिभाषा है उसमें स्थिति किसी भी वस्तु
का अवश्य ही कोई न कोई नाम,
रूप तथा स्थान होगा हो, तो उपयुक्र्त कथनात्मक चिन्तन से
इस परिभाषा में आक्षेप आने लगता है। फिर अब क्या किया जाए। आप कौन है, इस प्रश्न का उत्तर किस प्रकार दिया जाए ?
अब मैं इस बात
पर विचार करता हूं कि क्रिया और गुण का आश्रय लेकर ही ‘‘मैं कौन हूं?‘‘ यह बताने की चेष्टा करूं। इस जगत् में क्रिया और गुणभेद से ही व्यक्ति अथवा
वस्तु पहचान में आते है। यदि गुण-दोष समान है तथा क्रिया भी समान हो तो सभी एक
समान हो जाएंगें। ऐसी स्थिति में स्थान भेद से ‘‘यहां और वहां‘‘ ही कहा जा सकेगा। पर इससे दृश्यमान जगत का सम्यक् परिचय सम्भव नहीं। क्रियाभेद
तथा गुणभेद से परिचय देते समय भी नाम, रूप तथा स्थान से फुर्सत नहीं मिल
पाता। क्रिया और गुण का आश्रय लेने पर वह अपेक्षाकृत सूक्ष्म हो जाता है। नाम के
माध्यम से दिये गये परिचय से श्रेष्ठ क्रियाजन्य परिचय है और क्रियाजन्य परिचय से
श्रेष्ठ गुणजन्य परिचय होता है। इस प्रकार नाम से क्रिया और क्रिया से गुणजन्य
परिचय क्रमशः अपेक्षाकृत श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर तथा श्रेष्ठतम् है यह सोचकर
उस प्राकृत प्रश्न के उत्तर देने के सम्बन्ध में पुनः नया विचार उत्पन्न होता है।
मुझसे पूछा गया
है कि ‘आप कौन है?‘ यहां मुझे सीधे-सीधे यह उत्तर देना चाहिए कि मैं चैकीदार हूं, मैं फलां स्थान में चैकीदारी करता हूं, सावधान होकर रक्षा व्यवस्था में
रहना मेरा कार्य है, यही मैं हूं। इस प्रकार चैकीदार में नाम हो गया, रक्षा व्यवस्था का
कार्य मेरा रूप हो गया। मेरा यह परिचय उसी प्रकार युक्तिसंगत है जिस प्रकार औरों
का परिचय युक्तिसंगत हो सकता है। इस दुनियां में छोटे बड़े जो भी है, सब के सब चैकीदार है। सभी चैकीदारों का अलग-अलग नाम, रूप और स्थान देखने को मिल जायेगा। यही नाम, रूप और स्थान
चैकीदारों में भेद का कारण बन जाता है। यही भेद-बुद्धि परिचय के माध्यम में सहयोगी
हो जाता है। कर्मक्षेत्र में प्रवृत हुए लोग कृषक, व्यापारी, सिपाही से लेकर राष्ट्राध्यक्ष तक सभी चैकीदारों की गिनती में आते है। मुखिया
गांव का चैकीदार है तो प्रधानपंच ग्राम/नगर का, दारोगा थाना का, बनियां दुकान का, कृषक खेत का आदि। यहां तक कि भीखमंगों को भी अपने बर्तन और स्थान की चैकीदारी
से फुर्सत नहीं है। जिसके नाम का शोर-गुल अधिक रहता है, उसे बड़ा चैकीदार समझ लेना चाहिए। सभी चैकीदारों के अलग-अलग क्रिया तथा गुण
विषेष में सम्बोधित नाम, रूप और स्थान होते है। जैसे किसी से पूछा गया कि ‘‘आप कौन है?” जवाब मिला कि “मैं प्रधान-पंच हूं।” ग्राम/नगर की व्यवस्था करना मेरा
कार्य है और मैं ग्राम-पंचायत में रहता हूं यही मेरा परिचय है। इस प्रकार कर्म के
आधार पर नाम, रूप और स्थान का आश्रय लेकर इस दुनियां में परिचय होता है।
जो व्यक्ति इस
प्रकार की चैकीदारी में संलग्न नहीं है, वे भी चैकीदार बनने के लिए बेचैन
है। आखिर किया भी क्या जाय। यह चैकीदारों की दुनियां है। किसी से हो भी क्या सकता
है। गलती से भी इस दुनिया में आ गए हों तो भी चैकी सम्भाल लें। इस दुनियां की इज्जत-आबरू
अब चैकीदारी करने में ही रह गयी है। जैसा देश वैसा भेष करके ही चलना पड़ता है।
लंगड़ों के देश में पैर टेढ़ा करके चलना ही शान की बात है। पैर तुड़वां ले तो हमेशा
के लिए शान रह जाएगा। जन्म-जन्मान्तरों से कहा जाय या आदि काल से, यहां चैकीदारों की ही कद्र है। बड़े चैकीदारों की बड़ी पूजा और मान-सम्मान तथा
छोटे चैकीदारों को कम मान मर्यादा यहां के सभी लोग चैकीदार बनने का ही उपदेश दिया
करते है। सभी लोग वही है।
‘‘आप कौन है ?‘‘ इस प्रश्न के उत्तर में अपने कर्म और गुण का आश्रय लेकर उत्तर देने में अक्षम
हूं। ‘‘आप कौन है?‘‘ यह प्रश्न तो सार्वजनिक रूप से लागू हो सकता है। जैसे-किसी ने उत्तर दिया कि ‘‘मैं पहलवान हूं, दांवपेंच मेरा रूप है और अखाड़ा मेरा स्थान है,‘‘ और किसी ने उत्तर में कहा कि ‘‘मैं विद्वान हूं, अध्ययन अध्यापन मेरा रूप है और विश्व-विद्यालय या शिक्षण संस्थान मेरा स्थल
है।‘‘ यहां यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि कोई पहलवान या विद्वान आदि जो गुण और
स्थान से भी सम्बोन्धित हो सकते है। देहजनित नाम, रूपवाला कर्मप्रवीण और
कर्मप्रवीण गुणयुक्त नहीं हो सकता। जैसे कोई पहलवान सिपाही बन सकता है किन्तु
सिपाही पहलवानी नहीं कर सकता। कोई विद्वान या कलाकार प्रशासनिक क्षेत्र में प्रवेश
कर सकता है किन्तु कोई प्रशासनिक अधिकारी विद्वान या कलाकार कदापि नहीं बन सकता
है। इस प्रकार नाम से क्रिया और क्रिया से गुण कमशः अपेक्षाकृत श्रेष्ठ, श्रेष्ठत्तर तथा श्रेष्ठतम् होता है।
गुणवान् में
क्रिया और नाम का तथा क्रिया (कार्य) प्रवीण में नाम का अनुप्रवेश होता है। इस
प्रकार व्यक्ति मात्र देहादि नामों से तथा स्थूल नाम, रूप और स्थान से ही दे सकता है, किन्तु जो कर्म-वाचक मैं पन के
गुरूत्व में है उसके तो दो-नाम, दो-रूप तथा दो-स्थान हो जायेगें। इसके अतिरिक्त, जो गुण से युक्त है उसके तीन नाम, तीन रूप और तीन स्थानों से परिचय
देना कि मैं वही भी हूं, मैं यह भी हूं और मैं वह भी हूं, उपयुक्त नहीं जान पड़ता। फिर भी इस
प्रकार तीन परिचयवाले व्यक्ति देश, काल, परिस्थिति, व्यक्ति, भाव तथा प्रयोजनों को देखते हुए एक की प्रश्न के उत्तर में कभी तो मैं यह हूं
कहेगा और कभी मैं वह हूं कहेगा। ऐसा आगमपायी परिचय से निश्चयात्मिकता बुद्धि की
झलक नहीं मिलती। यह तो अवसरवादी नीति तथा धोखाधड़ी की बात हो जायेगी। सुननेवालों को
भी एक साथ तीनों परिचय प्रस्तुत करना सम्भव नहीं होता। पूछने वाले ने सीधा-सपाटा
प्रश्न किया कि ‘‘आप कौन है?‘‘ इसके उत्तर में इतना लम्बा-चैड़ा विचार करके जटिल उत्तर देना कहां तक
युक्ति-संगत माना जायेगा ?
अतः इस प्रश्न पर फिर से विचार कर लेना चाहिए कि कौन सा
उत्तर अभीष्ठ होगा।
उस भूत और
भविष्यत्नगर के लोग हमेशा परिचय में जाति, क्रिया, गुण और सम्बन्ध का आश्रय लेकर प्रस्तुत होते थे। इस परिचय में नाम, रूप तथा स्थान अपरिहार्य रूप से समावेश हो जाता है। जहां तक वर्तमाननगर के
लोगों की बात है, वहां भी प्रायः तीन तरह के लोग होते रहते थे। मैं अपने आप को बीच का समझता है
और कभी-कभी तीनों के लिए अपवादस्वरूप रहता हूं। उस नगरी की विचित्रता को देखते हुए
पूर्व प्रसंग में हुए प्रश्न “आप कौन है ?” के उत्तर के सम्बन्ध में मैने अब तक जो कुछ भी सोचा दोषपूर्ण बन जाता है। मैने
नाम, क्रिया और गुण का आश्रय लेकर मैं अमुक हूं, जिस प्रकार से कहना चाहा यदि कह
दिया होता तो मैं अपनी दृष्टि से स्व-घोषित नास्तिक हो जाता, परन्तु मैं नास्तिक नहीं हूं। उपरोक्त स्थिति में मेरी नास्तिकता का पता सिर्फ
मुझे और कुछ वर्तमान नगर वालों के लिए ही होता, भूत और भविष्यत् नगरवासियों को इस
बात का अन्दाजा कभी नहीं लगता क्योंकि उन लोगों की पहुंच वहां तक नहीं थी। इस बात
को दृष्टांत के रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है।
लोटा ने एक बार
बाल्टी से कहा मुझे एक लोटा पानी दो। बाल्टी ने भरी हुए बाल्टी की पानी पूरी की
पूरी लोटे पर उंड़ेल दी और कहा- “लो एक बाल्टी पानी।” इस बात को सुनकर लोटा बाल्टी से कहता है कि ‘‘आपने तो मात्र एक लोटा
पानी दिया, एक बाल्टी पानी का दावा आप न करें।” उस लोटे का कहना सत्य था। यदि बाल्टी में एक लोटा मात्र पानी होता तब भी वही
बात होती। कदाचित् लोटे में छलककर पानी अधिक चढ़ जाये किन्तु टिक नहीं सकता। लोटे को
चाहे सागर में भी क्यों न डुबो दिया जाय वह सिर्फ एक लोटा पानी ही समझ सकता है।
यही उसकी औकात है। लोटा फुट सकता है, बाल्टी नहीं बन सकता। भूत और
भविष्यत्नगर के लोगों के मस्तिष्क की क्षमता लोटे और उससे छोटे पात्रों तक की थी
लोटे से अधिक न थी। दूसरी तरफ, वर्तमाननगर में हजारों की संख्या में
बाल्टियां, सैकड़ों की संख्या में छोटे-बड़े ड्रम और एक बहुत बड़ी टंकी थी। वे सब के सब जल
से परिपूर्ण थे। ‘‘आप कौन है ?” इस प्रश्न के उत्तर में यदि मैं अपने
ड्रम की बुद्धि से उस लोटे में पानी डालूं तो जो ड्रम का बुद्धि का विषय कदापि
नहीं हो सकता। यदि लोटे को भर के छोड़ दूं तो वर्तमान नगर वाले मुझे दोष-दृष्टि से
देखते हुए कहेगें कि आपने अपना परिचय केवल लोटा भर दिया। यदि बाल्टी का पूरा पानी
उंड़ेल दिया जाए तो लोटे का आक्षेप सुनकर भी वर्तमाननगर के लोग असन्तुष्ट हो
जायेगें। मुझे तो वर्तमान नगर के लोगों के बीच रहना है। मूझे वही करना चाहिए जिससे
वर्तमान नगरवालों के बीच हलचल न हो। मैं ऐसा भी कर सकता हूं कि लोटे की पेंदी में
छेद कर दूं और पानी डालता जाउं जिससे कि मेरी आवश्यकता बनी रहे या चुन-चुन कर
छेदवाले पात्रों में ही पानी डालता जाऊँ, जिससे कि कुपात्र समूह के बीच मेरा
गौरव बना रहे मेरा गुरूत्व कायम रहे। पर ऐसा मुझसे सम्भव नहीं, क्योंकि मुझपर अन्य ड्रमों और टंकी की नजर है और साथ ही साथ मेरा भी ध्यान
उनकी तरफ बराबर रहता है।
यह जो कहा गया
है कि नास्तिक नहीं हूं और नाम-क्रिया तथा गुण का आश्रय लेकर परिचय देने पर
नास्तिक हो जाउँगा। वह किस प्रकार सत्य हो सकता है, जबकि भूत और
भविष्यत्नगर के लोग इसी प्रकार के परिचय को समझते बूझते है और इसी को परिचय देने
का आधार भी मानते है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि भूत और भविष्यत्नगर के रहने वाले लोग
सब के सब नास्तिक हो और केवल वर्तमाननगर के मुठ्ठीभर लोग ही आस्तिकता कायम किये
हुए हो ?
मैं इस बात को
स्पष्ट रूप से जानता हूं कि जो व्यक्ति ‘‘आप कौन है ?” इस प्रश्न का उत्तर देते समय किसी
प्रकार के चैकीदार का परिचय देता है, बुद्धिमान, बलवान, धनवान्, कलाकार आदि के नाम रूप और स्थान से सम्बोधित होता है, वह निश्चय ही नास्तिक है, भगवान के अस्तित्व को नकारता है। चाहे
वह करोड़ों बार क्यों न कहे कि मैं भगवान को मानता हूं उसकी सभी बातें आडम्बरपूर्ण
और मिथ्या है। यदि कोई मात्र इतना ही कह दे कि मैं इन्सान हूं, बह नास्तिक हो गया। उसकी नास्तिकता स्वघोषित होगी। उदाहरणस्वरूप- जब कोई यह
कहे की मैं आदमी हूं तो इसका अर्थ हुआ कि आप जो कुछ नीचे से ऊपर दिखाई दे रहे है
वहीं है, जिसे आप आदमी कह रहे है। यहां जो ऊपर से नीचे दिखाई दे रहा है उसके बिना भी आप
आदमी है या नहीं ? इसके मरने के बाद ‘आदमी‘ शब्द के स्थान पर ‘मुर्दा‘ या ‘लाश‘ क्यों सम्बोधित होने लगता है ? क्या था जो आदमी था और क्या था जो
निकल गया जो लाश हो गया ?
इसके बाद जब ‘आपको जला दिया जाता है तो ‘आप‘ राख हो जाते है। दफना देने पर ‘आप‘ मिट्टी हो जायेंगे।
इसी प्रकार कभी आप आदमी है तो कभी लाश। क्यो न अभी से ही कह दिया जाए कि आप आदमी
नहीं चलती फिरती लाश है।
यह बात सभी
चैकीदारों के लिए समान रूप से युक्ति से स्वीकार करने योग्य है। इसके अतिरिक्त जो
लोग यह कहते है कि भगवान् हम सब में रहता है तो ‘मैं‘ का नीचे से ऊपर दिखाई देने वाले पिण्ड को मानने से निश्चय ही उन लोगों का
भगवान राख का पर्यायवाची है क्योंकि पहले ही यह मान लिया गया है कि ‘मैं आदमी हूं‘। नाम, क्रिया और गुण के आधार पर ‘मैं आदमी हूं‘ कहकर सिद्ध किये गए मनुष्यत्व में भगवत् तत्त्व का अस्तित्व न जीवनकाल में न
मरणोपरान्त के शव परीक्षण में किसी भी चिकित्सक द्वारा न भीतर से न बाहर से किसी
भी काल में न प्रमाणित हुआ है न होगा। इतना ही नहीं उन लोगों के ‘भगवान‘ को तो राख के सदृष्य दाल, चावल, रोटी आदि शक्ति में
रूपान्तरित होने वाले खाद्य पदार्थों का पर्यायवाची होना भी सम्भव है, क्योंकि जो कुछ हम खाते है-पीते है वह कुछ समयोपरान्त हम में ही परिणत हो जाता
है अर्थात वह हम ही हो जाते है। इस युक्ति से ही परिणत हो जाता है अर्थात् वह हम
ही हो जाते है। इस युक्ति से जो आप अपने को आदमी कहते है उसके बदले दाल, रोटी आदि का सूक्ष्मरूप भी कह सकते है। इस तरह जल्दी-बाजी में बिना विचारे
अपना परिचय देना हो तो चावल और आटे के बोरे की ओर इंगित करते हुए ‘मैं वही हूं‘ भी कहा जा सकता है। तब तो दाल चावलों के बोरे की उठापटक आपे सुख-दुःख का विषय
हो जायेगा। इस प्रकार अपने आप को आदमी कहने पर कभी भी पता नहीं चलेगा कि आप किसको
आदमी कह रहे है। ऐसी स्थिति में यदि आप भगवान को भी उसके भीतर घुसेड़ेंगे तो कैसे
भगवान की पुष्टि हो सकेगी,
क्योंकि शरीर-परीक्षण से भगवान का पता न चल सकने के कारण
जिस शक्ति से यह शरीर सचांलित है उसका मूल कारण केवल खाद्य पदार्थ ही सिद्ध होगा।
इसलिए जो व्यक्ति अपने आप को अन्याय परिचयों के अतिरिक्ति कम से कम ‘मैं आदमी हूं‘ भी कह देता है और यह कहता है कि भगवान उसके भी ह्दय में वास करते है तो
भगवतसत्ता की सर्बव्यापकता में दोष आ जायेगा।
यह तो हुआ
सैद्धान्तिक पक्ष। अब क्रिया-पक्ष में भी देखें तो सब लोग, धन, यश, मान, प्रतिष्ठा, उच्चपद, सुख, प्रशंसा आदि के लिए बैचेन है। ये बातें सुक्ष्मरूप से ह्दय में गड़ी है। इनकों
प्राप्त करने तथा इनकी प्राप्ति में आनेवाले विघ्न बाधाओं को दूर करने के
परिप्रेक्ष्य में भगवान के सहस्त्र नामों में से किन्ही नामों की वैशाखी को
अंगीकार कर लेते है, जबकि यह वैशाखी किसी काम का नहीं, क्योंकि जगत् में सब-कुछ किसी न
किसी कार्य-कारण नियम से ही सिद्ध होता है, न किसी संयोग से। सुने हुवे आधार
पर जाने-अन्जाने देवी-देवताओं को भगवान् मानकर उसे अपनी-अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए
‘प्रतिरूप‘ हथकण्डा को ‘प्राप्तिरूप‘ में स्वीकार करके पीढी-दर-पीढ़ी मूढ़ता की परम्परा कायम कर देते है। उन हथकण्डों
के साथ लम्बा समय गुजार लेने के बाद उन्हें भी अपने परिचय का माध्यम बना लेते है।
जैसे फलां तो काली, शंकरजी का बहुत बड़ा भक्त हैं घण्टों देर तक पूजा में बैठता है, धार्मिक है, आसन लगाता है, फलाहारी है, ध्यान करता है, नियमित रूप से व्रत करता है आदि-आदि। इस प्रकार की धार्मिकता का प्रपंच भूत और
भविष्यत्नगर के लोगों में देखा जाता है। ऐसे आस्तिकों से लाख गुना बेहतर वे लोग है
जो पक्के नास्तिक है, क्योंकि कि नास्तिकता का आधार ऐसे आस्तिकों की आस्तिकता के आधार की अपेक्षा
ठोसतर है। ये आस्तिक लोग तो अन्धों के हाथी के समान भी न होकर सुनी हुई बातों के
आधार पर उसी तरह चलते है जैसे रात में चमगादड़।
चमगादड़ को
सिर्फ रात में सूझता है, वह शब्द के सहारे दिशा बदलता है और बिना मतलब के पेड़ में लटका रहता है, जबकि वह लटकना खतरे से खाली नहीं हैं। वह सोचता है कि छोड़ देगें तो गिर
जायेगें। उसे इतनी भी अक्ल नहीं की वह उसी टहनी पर बैठ भी सकता है। इसी तरह भूत और
भविष्यत्नगर के सभी चैकीदार किसी न किसी टहनी पर लटके है। उन लोगों को तो चाहिए था
की उस टहनी की दुहाई दी जाय जिसमें वे लटके है न कि वैशाखी की। जो उस टहनी की
दुहाई देता है उसे तो लोग नास्तिक कहते है और जो भीतर से तो टहनी के गुरूत्व को ही
स्वीकार करते है, परन्तु बाहर से वैशाखी को दुहाई देते है और उस टहनी में अपनी-अपनी वैशाखी को
घुसेड़ते है व आस्तिक की श्रेणी में आते है। ऐसी आस्तिका और नास्तिकता यथार्थ में
गोबर-माटी में हलुवा-पूड़ी मिलाकर किये हुए लीपा-पोती के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं
है।
मैं उस
आस्तिकता और नास्तिकता से परे का आस्तिक हूं। भले ही मेरी बार भूत और भविष्यत्नगर
न समझे। मैं रोगी की इच्छा अनुसार दवा और खाद्य पदार्थ तो दूंगा नहीं, क्योंकि मेरी नजर हर समय वर्तमाननगर के लोगों की और रहती है। जब कोई यह कहे कि
‘मैं आदमी हूं‘, तो वह नास्तिक हो जाता है, फिर भला मैं क्यो यह कहने का निर्णय लूं
कि मैं फलां आदमी हूं। अतः मुझे और विचार करना आवश्यक है कि मै क्या कहूं ? ‘आप कौन है ?‘ इस कथन का सही उतर क्या दूं ?
अच्छा तो यही
होगा कि मैं जो हूं वही कह दूं। बहुत बार विचार करते-करते इस निष्कर्ष पर पहुंच
जाता हूं कि मैं कुछ भी नहीं हूं। मुझसे पूछा गया कि मैं कौन हूं ? अर्थात “ कोऽहं ?” इसलिए यह उत्तर दे दूं कि ‘नाऽहं‘, अर्थात मैं नहीं हूं। यह बात बड़ी ही सरलता से सिद्ध हो सकती है। मेरे शरीर को
देखकर ही यह प्रश्न बना है कि ‘मैं कौन हूं‘। यह शरीर बहुत सारे अंग-प्रत्यंगों का संरचनात्मक समूह माना जाता है। यदि
किसी अंग का अभाव हो जाए,
स्थानान्तरण हो जाए या प्रत्यारोपण किया जाए तब भी इस शरीर
के समक्ष यह प्रश्न बना रहता है। यदि हाथ न रहे तो भी मैं रह सकता हूं, पैर न रहे तब भी मैं रह सकता हूं। एक स्थान के मांस को काटकर दूसरे स्थान में
घाव भरने के लिए लगाया जा सकता है, गुर्दा, ह्दय आदि भी बदले जा सकते है। खून भी दिया जा सकता है। कुरूप, लूल्हे, लंगड़े, अष्टावक्र भी देखे जाते है। अतः हाड़, मांस का एक रचनात्मक समूह कहने के
बदले मात्र समूह कह देना ही ठीक हो जायेगा। मौत की आंधी के अभाव में आसमान में एक
खयाली मकान चन्द श्वांसों पर खड़ा है। यह कह देना ठीक हो जायेगा।
किसी भी अंग की
ओर इंगित करें तो मुझे यह कहना होगा कि मैं यह अंग नहीं हूं। जैसे- मैं हाथ नहीं
हूं, मै पैर नहीं हूं, मै कान नहीं हूं, मै जीभ नहीं हूं आदि। ह्दय भी बदल
लिया जाता है, गुर्दा नकली मिल जाता है, खून के बदले ग्लूकोज भी मिल जाती है, अतः यदि मैं इन अंगों को जिनके बिना जीना संभव नहीं, यह मैं कह दूं तो मुझे नकली ह्दय, गूर्दें, खून, ग्लूकोज आदि को भी मैं यही हूं कहना पड़ेगा। मैं इन सब के समूहों को मिलाकर भी
मैं यह हूं, इस प्रकार नहीं कह सकता, क्योंकि इस तरह मैं जिन्दा शरीर या
मुर्दा लाश हो जाउंगा, जबकि मैं यह सब हूं ही नहीं। इस प्रकार मेरा कोई निश्चित ठिकाना नहीं रह
जायेगा और मैं अमुक-अमुक हूं यह बात निश्चितरूप से कहने में मै असमर्थ हो जाउंगा।
शायद मैं इन सबसे परे कुछ और हूं।
व्यवहारकाल में
सभी लोग यह कहते है कि यह मेरा घर है, यह मेरा कपड़ा है, यह मेरा जूता है, यह मेरी घड़ी है आदि। यह कभी भी सूनने को नहीं मिलता कि मै घर हूं, मैं कपड़ा हूं, मै जूता हूं, मै घड़ी हूं आदि। इसी क्रम में मैं हाथ हूं, मै पैर हूं, मैं कान हूं, मै नाक हूं, मै सिर हूं आदि न कहकर मेरा हाथ, मेरा पैर, मेरा कान, मेरी नाक, मेरा सिर आदि कहा जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ‘मैं‘ शरीर से सम्बन्धित अंग-प्रत्यंगों में से कुछ भी नहीं हूं, अपितु, यह सभी मेरे है। इस शरीर के अंग उसी प्रकार मेरे है, जिस प्रकार अन्य सांसारिक वस्तुयें। मैं इन सबसे भिन्न हूं।
अब प्रश्न
उत्पन्न हो जाता है कि मैं शरीर से भिन्न क्या हूं ? बहुत देर तक विचार
किया। विचार करते रहने पर यही परिणाम निकलता है कि मैं वास्तव में कुछ भी नहीं हूं
बिना शरीर के मैं कुछ भी नहीं हूं। मैं तो वैसा हूं जैसे कत्था, चूना, पान, सुपारी, जर्दा आदि मिल जाने से लालिमा घटित हो जाती है। लालिमा का स्वतन्त्र अस्तित्व
ही कहां है ?
‘‘मैं कौन हूं ?‘‘ का उत्तर वास्तव में ‘‘मैं कुछ भी नहीं हूं‘‘
या ‘‘मैं नहीं हूं‘‘ होता है। अब यदि मैं उपरोक्त चिन्तन के आधार पर “आप कौन है ?” इस प्रश्न के उत्तर में ‘मैं कुछ भी नहीं हूं‘
कह दूं तो भूतनगर वासी यह कह देगा कि ‘इस नगरी में जितने भी मनुष्य है व अवश्य ही कुछ न कुछ है और अपने को कुछ न कुछ
अवश्य बताते है तो भला आप कैसे कुछ नहीं है ? मैं तो आपको कम से कम आदमी और
प्रश्न के उत्तर देने में तत्पर चिन्तनशील पुरूष के रूप में देख रहा हूं। इसके
अतिरिक्त आप जिन्दा खड़े है। खम्भा तो आप अवश्य ही नहीं है, आप आदमी है। और आपमें उत्तर देने की तत्परता का आभास होने से आप गुंगे भी
प्रतीत नहीं होते। इसलिए आपको यह तो बताना ही होगा की ‘आप कौन है ?‘ यदि आप कुछ नहीं है तो आप यह बोले क्यों कि ‘मैं कुछ भी नहीं हूं‘। यदि आप अपने बारे में बताना नहीं चाहते, कहने में सकुचाते हो या अन्य किसी
प्रकार की कठिनाइयां हो तो कम से कम आपको यह बताना ही होगा कि आपका ‘मैं कुछ नहीं हूं‘ का अभिप्राय क्या है ?
आपने बहुत देर सोचने के बाद ‘मैं कुछ नहीं हूं‘ कहकर कुछ नहीं का ‘‘कुछ‘‘ अस्तित्व कायम कर दिया है। यही ‘‘कुछ‘‘ बता दीजिए, जिससे यह समझ लें कि आप कुछ नहीं वाला कुछ है। यदि किसी युक्ति का आश्रय लेकर
मैं कुछ नहीं हूं कहेगें तो यह बात हम सब में भी लागू हो सकती है। क्योंकि हम लोग
आपसे विशेष भिन्न नहीं है तथा एक ही नगरी के बासी है। हम लोगों में प्रायः सभी कुछ
न कुछ है। आप अकेले ‘कुछ नहीं‘ हो गये तो इसका असर बहुमत पर पड़ना कठिन है। आपको इस नगरी के लोग कुछ न कुछ
अवश्य मान लेगें। जब आपको यहां के लोग आपकी शब्दवृति और लक्षणवृति के आधार पर कुछ
न कुछ मान हीं लेगें तब आपका परिचय उसी ढंग से होने लगेगा। तब क्यों न आप भलीभांति
विचार का जैसा हमलोग आपको भविष्य में मान लें ‘वहीं मैं हूं‘ कह दें। इस प्रकार मैं यह हूं या मै ऐसा हूं कह देने से वर्तमान में भी फुर्सत
हो जायेगी ओर भविष्य में भी ठीक रहेगा। लोग आपको सत्यवादी मान लेगें। जैसा कहा था
वैसा ही निकला आदि।
‘मैं कुछ नहीं
हूं‘ इस प्रकार उत्तर देने से जो-जो दोष उत्पन्न हो जाते है और उत्तर देते समय
जो-जो कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती है इससे बेहत्तर यह होगा कि निर्दोषितापूर्ण
उत्तर पर विचार किया जाए।
मैं उस समय
विचार कर ही रहा था कि किसी वजह से हम लोगों के बीच मेरे ही नगर में रहने वाला
अर्थात् वर्तमान नगरवासी आ टपका। यद्यपि वह बाल्टी था और मैं ड्रम। मेरे लिए विशेष
फर्क की बात न थी। किन्तु आप कौन है इस प्रश्न का उत्तर कहीं अधिक जटिल न हो जाय इस
बात की चिन्ता होने लगी। अब मुझे अपने नगरवासी के बीच भी अपना परिचय देना था। यहां
झूठ, धांधली और नकली बातों से काम न चलने वाला था। यदि मैं भूत और भविष्यत्
नगरवासियों को अनुकूल होने वाला उत्तर दूं तो वह कह देगा कि आप वर्तमाननगर में
रहने योग्य नहीं है। और यदि मैं वर्तमान नगरवाले को सुनाने के लिए कहता हूं तो
औरों को कुछ भी समझ में आना मुश्किल है, क्योंकि वे अधिक से अधिक है तो
लोटा। अब मैं विचार करके इस निष्कर्ष पर पहुंचता हूं कि मेरे नगर में हरने वाले
इसी वर्तमान नगरवासी न ही परोक्षरूप से यह प्रश्न किया है कि ‘आप कौन है ?‘ मेरी सन्तुष्टि भी इसी में है। अब मैं विषयान्तर हो गया।
‘मैं कौन हूं‘ इस प्रश्न के उत्तर के लिए मैं अब शुरू से विवके-पूर्ण विचार करने लगा यह जगत
दृष्टा और दृष्य का खेल है। इसको मोटे अर्थों में मायिक शरीर और मायिक आवरण भी कहा
जाता है। पंचभूत और पंचतन्मात्रक यह स्थूल देह शरीर कहा जाता है। तथा इससे
सम्बन्धित समस्त सांसारिक वस्तुओं को आवरण के अन्तर्गत समावेश किया जाता है। गौर
से विचार करने पर यह समझ में आने लगता है कि जिसे मैं मायिक शरीर कहना हूं वह अन्य
सभी के लिए मायिक आवरण है। मेरे लिए यदि कोई व्यक्ति मोह ममता का विषय है तो मैं
भी किसी के लिए मोह ममता का कारण हूं। इस प्रकार इस जगत में मायिक शरीर कहने से
बेहतर होगा कि मायिक आवरण कह दिया जाए। दृष्टा और दृष्य के प्रसंग में अपने आप को
छोड़कर बाकी सभी दृश्य है। यहां पर दृश्य प्रपंच को देखकर ही ‘आप कौन है ?‘ ऐसा प्रश्न बना है। मैं दृश्य हूं, ऐसा कह देना सम्यक् उत्तर नहीं
होगा। दृष्टा के अनुरूप कायम हुआ है। भेद बुद्धि से उसमें भेद निरूपण होने से
भिन्नता कायम हुआ है। भेद से ही संसार है।
यदि भेद न हो तो संसार भी नहीं होगा। जब सभी दृश्य है तथा मायिक आवरण है तो दृश्य
का दृष्टा के साथ प्रश्न कैसा ? यहां तो प्रश्न भी उपस्थित है। अतः
समस्त दृश्य प्रपंचों से भिन्न दृष्टा की उपस्थिति आवश्यक है। अब प्रश्न पर फिर से
विचार करना आवश्यक होगा।
पूछा गया है कि
‘आप कौन है ?‘ यहां ‘आप‘ शब्द उस दृष्टा के लिए प्रयुक्त सर्वनाम है। उस दृष्टा को जीव नाम से भी
सम्बोन्धित किया जाता है। दृष्टा और दृश्य को पुरूष और प्रकृति भी कहते है।
द्रष्टा और दृश्य परस्पर सापेक्ष है। यदि दृष्टा न हो तो द्रष्टा भी नहीं होगा। प्रश्न
कर्ता ने सर्वप्रथम मुझे देखा और प्रश्न किया कि ‘आप कौन है ?‘ इस देखने के कार्य में ध्यान और प्रकार भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। द्रष्टा
और दृश्य हो पर प्रकाश न हो तो दिखाई नहीं देगा। इसके साथ-साथ द्रष्टा, दृश्य और प्रकाश हों पर ध्यान न हो तब भी दिखाई नहीं देगा। बहुत बार ऐसा होता
है कि आदमी सामने से गुजर जाता है पर ध्यान कहीं और रहने के कारण पता नहीं लगता।
अतः इस प्रश्न में दृष्टा,
दृश्य, प्रकाश और ध्यान तथा इन चारों की कुछ
क्षण तक सत्ता होना परिदृश्य मान घटक में साक्षी कि लिए परस्पर सापेक्ष है। इन्हीं
सापेक्षता श्रोता में भी- श्रोता, आवाज, दिशा, ध्यान तथा इन चारों की सत्ता का क्षणभर होना परिश्रोत्यमान घटक में साक्षी के
लिए परस्पर सापेक्ष है। इस आधार पर इस प्रश्न के उत्तर में ‘मैं‘ ‘परस्पर सापेक्ष‘ ‘है‘ का ‘हूं‘ अर्थात ‘मैं परस्पर सापेक्ष हूं‘। यह सापेक्षता ठीक उसी तरह है जिस
प्रकार ‘आप‘ परस्पर सापेक्ष ‘है‘ का ‘है‘ अर्थात ‘आप‘ परस्पर सापेक्ष है। हम लोगों का ‘हूं‘ और ‘है‘ इसलिए ‘है‘ है कि हमलोगों ने, जिसका वास्तव में सत्ता नहीं है, उसी का आश्रय लेकर सूक्ष्म दृष्टि
या विचार दृष्टि से सापेक्षता में भ्रान्ति-मूलक आत्मबुद्धि कायम किया है। जगत में
सभी वस्तुओं को ‘है‘ की सर्वव्यापकता के कारण यह है, वह है, फलां है, चिलाँ है आदि व्यवहारकाल में सम्बोधित किया जा सकता है। लेकिन ‘मैं‘ के साथ जब यह बात लागू होती है तो वह ‘है‘ ‘हूं‘ में बदल जाता है। अनात्म वस्तुओं में आत्म-बुद्धि कायम होने के कारण ही यह ‘है‘ ‘हूं‘ में बदल जाता है। ऐसा युक्तिसंगत है। परन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं होगा
क्योंकि वह सापेक्षता भी दृष्य प्रपंच के अन्तर्गत आती है। यहां तो द्रष्टा को ‘आप कौन है ?‘ इस प्रकार से पूछा गया है। ऐसा उत्तर देना तो द्रष्टा को दृश्य के साथ खिचड़ी
पकाकर द्रष्टा के अस्तित्व को सापेक्षता की भूल-भुलैया में डालना हो जायेगा। यहां
तो सभी दृश्य में अलग-अलग दृष्टा की अपेक्षा की भेद से ‘आप कौन है‘ ऐसा प्रश्न भी बना हो सकता है, अर्थात जितने मनुष्य, प्राणीसमुह है, सभी में अलग-अलग दृष्टा है यह मानकर आप कौन से द्रष्टा है, यह प्रश्न हो सकता है।
अलग-अलग
द्रष्टा को स्वीकार करना साधना की दृष्टी से असम्भव है। विचार की इच्छानुसार गति
जहां तक हो सकती है वहां से आगे साधना की निम्नतम कड़ी की शुरूआत होती है। मैने
पहले बहुत विचार किया था। उस विचार के क्रम में विद्यादृष्टि तथा इन्द्रियजनित, स्थूल दृष्टि का आश्रय लिया था। उस स्तर से प्रश्न का हल न होने के कारण साधना
स्तर पर प्रवेश करके प्रश्नोतर ढूंढ रहा हूं।
यदि में साधना
करने के लिए बैठ जाउं तो सामने बहुत बड़ा आयना रख लूंगा। आयना उतना ही बड़ा होगा
जितने मुझे अपना पूरा शरीर दिखाई दे। तो फिर दूर से आईने में, आंख की पुतली में अपने आपको देखता रहूंगा। इस प्रकार कुछ दिन के अभ्यास के
उपरान्त जब, जिस क्षण ध्यान की एकाग्रता सिद्ध होगी उसी क्षण आईने में मेरा प्रतिबिम्ब
लुप्त हो जायेगा। आईने के भीतर दो फीट दूर से चार फिट की दूरी में जो प्रतिबिम्ब
दिखाई देता है वह तो है नहीं, किन्तू ज वह दृष्य ध्यान की सिद्धि में
द्रष्टा के साथ एकाकार हो जाता है, जब उसे बिश्वास हो जाता है कि वहां
वास्तव में कुछ नहीं है। क्योंकि ध्यान की पहली घटक में द्रष्टा और दृश्य दोनों
लोप हो जाते है। यह बात बिन्दू ध्यान, फोटो ध्यान आदि त्राटक क्रियाओं से
भी होती है। ध्यान से देखने पर दृश्य तो है ही नहीं, द्रष्टा भी गायब। ऐसी
स्थिति में ‘मैं कुछ भी नहीं हूं‘
का ‘कुछ‘ तथा ‘परस्पर की सापेक्षता‘
भी लोप हो जाती है। अब विवेकपूर्ण स्थिति में रहकर मैं क्या
हूं के उत्तर में यदि कहूं कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार उस जीव के ही,
क्रियाभेद से, भिन्न-भिन्न नाम है, तो इनका भी स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। यदि लोगों का स्वतंत्र अस्तित्व होता
तो किसी एक का आश्रय लेकर कहता कि ‘मैं मनमाना हूं‘ ‘मैं बुद्धिमान हूं‘ ,
‘मैं चित्तवान् हूं‘ या ‘मैं अहंकारी हूं‘। जब सभी शरीरधारियों के लिए समानरूप से यह बात लागू है तो प्रश्नकर्ता मुझसे
क्यों पूछता है कि ‘आप कौन है ?‘ क्यों न वह स्वयं से ही पूछता कि वह कौन है ?
ऐसा भी सम्भव
है वह इन समस्त बातों को जानता हो तथा व्यवहारकाल में यह प्रश्न बना हो और ‘आप कौन है ?‘ का तात्पर्यरूप से सम्बन्ध रखता हो। अब इस भाव के आधार पर व्यवहारकाल में होने
वाले प्रश्नोत्तर पर विचार करना चाहिए, क्योंकि वर्तमान नगरवासियों का
व्यवहार आपस में मिलाजुला हुआ सा होने से उन लोगों का परिचय प्राप्त करना तो केवल
भावभेद से ही सम्भव है, तथा भाव से भेद और भेद से संसार होने के कारण भावभेद के स्तरादि से भेद भूत और
भविष्यत् नगरवासियों का भी परिचय सम्भव है। यदि भावभेद की गुंजाइस न होता तीनों
नगर आपस में मिले-जुले ‘हुए से‘ प्रतीत न होते।
मैं देखता हूं
कि वर्तमाननगर का एक बाल्टी भी मेरा उत्तर सुनने के लिए तत्पर है। इसलिए ठीक से
विचार करना अपेक्षित है। जब कोई लोटा बाल्टी बनना चाहता है तो वह लोहार के पास
जाकर अपने आप को गर्म करके पिटवाता है तब कहीं जाकर बाल्टी बनता है। देखादेखी में
और लोटे भी आपने को जमीन में पटकते है फूट जाते है। भूत और भविष्यत्नगर में बहुत
से फूटे हुए लोटे आदि पात्र देखने को मिलते है।
बाल्टी दो तरह के
देखे जाते है। (1) वह लोटा जो पटकते पटकते संयोगवश लोहार के पास पहुंच गया हो और लोहार ने उसे
पीट-पीटकर बाल्टी बना दिया हो। अपने पूर्व की बेढंगी पटकान से वह बहुत कमजोर होने
के कारण कहीं फूट न जाय यह सोचकर सांसारिक कार्यों से दूर हो। (2) दूसरा वह लोटा जो बहुत पहले से लोहार के पास पड़ा हो और समय-समय पर कायदे से
पीटकर धीरे-धीरे कालान्तर में बाल्टी बना हो।
साधक दो तरह के
होते है। (1) हठयोग के साधक और (2)
राजयोग के साधक। दोनों के गन्तव्य मार्ग तथा क्रियाओं में
भेद है, किन्तु उपलब्ध की दृष्टि से उपलब्धि-मार्ग समान है। यहां शीघ्रता से विचार
करने के लिए हठयोग का आश्रय लिया जाता है, यदि राजयोग का आश्रय लिया जाए तो
प्रश्न के उत्तर देने में बहुत देर हो जायेगी।
राजयोगी ‘सोऽहं‘ साधना का आश्रय लेता है तो हठयोगी (1) मूलबन्ध (2) जालन्धर बन्ध और (3) उड्डियान बन्ध का आश्रय लेता है। साधना से कुण्डलिनी जागृत कराता है। जब वह
जागकर मूलाधार-चक्र में स्थित हो जाती है जब उसे गणेश जी की सिद्धी मिलती है, जब वह उससे आगे बढ़कर स्वाधिष्ठान-चक्र, मणिपुर-चक्र, अनाहत-चक्र, विशुद्धि-चक्र, और आज्ञा-चक्र पर पहुंच जाता है तब क्रमषः इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु, शंकरजी की शक्ति और दिव्य दृष्टि प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्ति धारणा योग
से या सूक्ष्म तन्मात्राओं आदि का आश्रय लेने पर भी अनेकानेक सिद्धियां उपस्थित हो
जाती है। वर्तमान नगरवासियों में यह बातें प्रायः सर्वविदित है। किन्तु इसकी
पृष्ठभूमि में एक रोचक तथ्य ध्यान देने योग्य है। साधना के क्रम में या तो ऊपर
उठना है या तो नीचे गिरना है। बीच में अधिक दिन टिकना संभव नहीं। यदि किसी को
मणिपूक चक्र तक पहुंचने का मौका मिला तो उससे होने वाले सिद्धियों से लोगों को
प्रभावित करेगा। उसी स्थिति में प्रयाण करने पर ब्रह्माजी के लोक में जायेगा। यहां
लोगों को वह ‘ब्रह्मा‘ भाव में भावित हूं, ऐसा कहकर चमत्कार के द्वारा अपना परिचय देता रहेगा। कुछ दिन पश्चात् मणिपूरक
चक्र से ऊपर उठकर अनाहt-चक्र में नहीं पहुंचा तो पुनः स्वाधिष्ठान चक्र में या और
नीचे आकर गिरेगा। फिर भी लोगों को यही कहते रहेगा कि ‘मैं ब्रह्मा के पद पर प्रतिष्ठित हूं। यहां ‘आप कौन है ?‘ इस प्रश्न के उत्तर में ऐसा कहना असत्य होगा, किन्तु इस बात को
बतायेगा कौन ? परिणामस्वरूप इस प्रभाव का मूल्य जीवनभर महात्मा के रूप में वसूल करता रहेगा।
यह क्रम उसी प्रकार है जैसे कोई इन्स्पेक्टर मुअत्तल कर दिया गया और लोग इस बात से
अनभिज्ञ है तो वह अपने को इंस्पेक्टर कहलवाता रहता है। इस बात का पता तभी चलेगा जब
उससे पूछने पर ठीक-ठीक बतायेगा, या उसके कार्यालय से सम्बन्ध स्थापित
किया जायेगा। फिर बाद में वह अपने आपको भूतपूर्व इन्स्पेक्टर कहलवाने लगता है। यदि
भूतपूर्व ही कहलवाना हो तो भूतपूर्व मां के पेट का बच्चा क्यों नहीं कहलवाते। यह
इसलिए नहीं होता कि यहां इसका मूल्य वसूली नहीं हो सकता।
अब यदि भाव के
आधार पर उत्तर दिया जाए तो ‘आप कौन है ?‘ इस प्रश्न के उत्तर में ‘जिस भाव में भावित है‘ उसके अधार पर तो सन्देह बना रहेगा। इस प्रकार यदि हठयोग या राजयोग में किसी
प्रकार का भी साधक होऊं तो भी मेरे लिए ऐसा सन्देहजन्य उत्तर देना तथा चढ़ता उतरता
परिचय देना शोभा नहीं देता।
प्रश्न को ठीक
ठीक समझे बिना प्रश्न के उत्तर देने में उलझन का सामना करना पड़ता है। इस प्रश्न
में जो ‘आप‘ शब्द आया है उस पर विचार किया जाए। ‘आप‘ शब्द सर्वनाम है तथा
मध्यम पुरूष है। ‘मैं‘ और ‘वह‘ भी सर्वनाम है। सभी में ‘मैं‘ गूंज रहा है। ‘मैं‘ का गुरूत्व सदा से कायम है, ‘आप‘ और ‘वह‘ तो मात्र व्यवहारकाल में प्रयुक्त है। ‘आप‘ और ‘वह‘ की उत्पति ‘मैं‘ से है। संख्यावृद्धि के कारण कालान्तर में यह सर्वनाम बन गया है।
‘मैं‘ शब्द का प्रादुर्भाव श्वांस से है। शान्तावस्था के उच्छवास में ‘हं‘ का बोध होता है। ‘हं‘ से ‘हम‘ और ‘हम‘ से ‘मैं‘ बना है। इस प्रकार सभी में ‘हम‘ है और सभी एक दूसरे के लिए ‘हम‘, ‘तुम‘, ‘आप‘, और ‘वह‘ है।
दूसरे शब्दों
में ‘सः‘ से ‘ह‘ की उत्पति है। ‘हं‘
का व्यवहार वाणी में न होने के कारण ‘हं‘ के ऊपर लगे अनुस्वार को नीचे गिराकर
उसका पैर तोड़ दिया जाता है। इस तरह ‘हं‘ की वैशाखी पर ‘म्‘
टिका रहता है। जिसके परिणामस्वरूप वह आधा ‘म‘ बन जाता है, जिसे हलन्त की सहायता से ‘म्‘
दर्शाते है। इस प्रकार ‘हं‘ से ‘हम‘ और ‘हम्‘ से ‘हम‘ बनता है। यह तात्विक पद्धति है। वैदिक
पद्धति के अनुसार ‘सः‘ से ‘हं‘, = ‘सः‘ ऽ ‘हं‘, और व्यवहारकाल
में ‘सोऽहं‘ हो जाता है। ‘सोऽहं‘ में चार अक्षर विद्यमान है, स + ओ + ह + अं । इनमें से (ह + अं) = ‘हं‘ का
बिभाजन इस प्रकार हो जाता है,.........
अ+ह+म् = अहम् = ‘मैं‘। जिह्वा, ओष्ठ आदि इन्द्रियों ने अपनी अपनी सुविधा के लिए समय समय पर अपभ्रंश करते हुए ‘हं‘ को इस सरल उच्चारण पर पहुंचाया। जब ‘हं‘ मैं जागतिक् वस्तुओं के साथ, जो विभक्त वस्तुएं है,
अविभक्त रूप से आत्मसात् करने लगता है, तब विभक्ति-प्रत्यय के रूप में और अधिक अपभ्रंस को प्राप्त होता है। जैसे ‘मैं‘ से मैने, मुझे, मेरा, मुझको, मुझसे, मुझमें, ‘हम‘ से हमने, हमें, हमारा, हमको, हमसे, हममें, ‘वह‘ या ‘उस‘ से उसने, उसे, उसका, उसको, उससे, उसमें आदि।
परिचय की
दृष्टि से भेद-बुद्धि को कायम रखकर ‘हम‘ भिन्न-भिन्न शब्दों
में प्रयुक्त होता है। इस युक्ति से ‘सब ‘‘हम‘‘ एक है‘ या ‘जो हम है सो आप है,‘ उत्तर बन जाता है। बात इस तरह की हो जायेगी कि हमसे आप क्या पूछते है ? आप अपने आप से ही क्यों नहीं पूछ लेते कि आप कौन है। यदि प्रष्नकर्ता में यह
सब भव पहले से ही विद्यमान हो और तब ऐसा प्रश्न पूछा हो तो वह नाराज हो जायेगा और
कहेगा कि जब मुझे अपने आपसे ही प्रश्न करना था तो आपसे यह क्यों कि आप कौन है ? क्यों इतनी देर इन्तजार करते ?
‘आप कौन है ?‘ इस प्रश्न का क्या उत्तर देना उचित होगा, इस पर विचार कर ही रहा था कि उसी
समय वर्तमाननगर से एक बड़ा बाल्टी आ पहुंचा। उसकी उपस्थिति ने प्रश्न के ऊपर और
अधिक गंम्भीरता से सोचने के लिए बाध्य कर दिया। वह साधना के बल से आत्मज्ञान को प्राप्त
कर नित्य आत्मा की ओर था। ऐसे बहुत से बाल्टी वर्तमान नगर में रहते थे। उन सभी ने
भिन्न-भिन्न साधना के माध्यमों को स्वीकार किया था, और उन्हें ब्रह्मा की
उपलब्धि का द्वार समझकर आगे बढ़े थे तथा आत्मसाक्षात्कार किया था। उन्हें क्या पता
था कि वह उपलब्धि के स्वसाध्य मार्ग की दुहाई देते थे। उपलब्ध में एकता बताते हुए
उसके उपलब्धि-मार्ग में गन्तव्य-भेद बताकर अपना अपना खूंटा गाड़ते थे। लोटा आदि
पात्र पटकने वाले बहुत थे किन्तु संयोग से कोई लोटा लोहार के हाथों पड़ गया और
कायदे से पटका जाने के कारण वह बाल्टी बन गया। क्या वह बाल्टी जब भूत या
भविष्यत्नगर के किसी लोटे को पटकने-पटकाने का सही तरीका बता सकता है ? वह स्वयं जिस तरह पटका गया उसी तरह पटकने-पटकाने का ही तो उपदेश देगा। उसे तो
लोहार का पता बताना चाहिए था और कहना चाहिए था कि जब मैं लोटा था तब अपने को
मनमाना पटक रहा था, मेरे हिसाब से संयोग से, किन्तु यथार्थ में लोहार की कृपा से मैं
बाल्टी बन गया। किन्तु किसी भी बाल्टी ने आज तक ऐसा नहीं कहा। यही अफसोस की बात
है।
भूत और
भविष्यत्नगर के सभी लोटे आदि पात्र पटकना-पटकाना शुरू कर देते है। आखिर करें भी तो
क्या। उन लोगों को तो सिर्फ पटकने-पटकाने का उपदेश दिया गया है। अन्धाधुन्ध
पटकने-पटकाने का प्रत्यक्ष प्रमाण भूत और भविष्यत्नगर में देखने को मिलता है। ऐसी
स्थिति में जिस व्यक्ति के ह्दय में पटकना-पटकाना घुस गया है वह तो कहेगा कि मैं
ब्रह्म की उपलब्धि में पटकने वाले मार्ग का प्रणेता हूं। मैं तो पटकते-पटकाते
पहुंचा हूं तथा अन्य लोटों को भी उसी ढंग से पटकने-पटकाने का उपदेश देता हूं। लोटे
चाहे फूट क्यों न जाएं। इस प्रकार का भाव बड़े बाल्टियों में भावित रहता है। सो मैं
तो जानता हूं। इस प्रकार के भावों में भावित होकर मैं उस प्रश्न का उत्तर नहीं
दूंगा। अब मैं अपने स्वरूपानुसन्धान वृति से दत्तचित्त होकर ‘मैं कौन हूं ?‘ इस प्रश्न पर विचार करता हूं।
मुझे याद आता
है। बहुत समय पहले दो व्यक्ति एक कन्या को डोली में रखकर ले जा रहे थे। डोली के
पीटे लोगों की जमात थी। कुछ लोग मेरी तरह नजारा देख रहे थे। डोली को उठानेवाला
अगला कंहार धार्मिक लगता था। उसकी चाल बेढ़गी थी। वह जमीन की ओर देखते हुए चलता था।
वह चलते समय यह सोचता होगा कि कोई जीव (चींटी आदि) न दब जाएं। प्रत्येक कदम सोच
समझकर बढ़ाता था। यह बात पिछले कंहार में न थी। परिणामस्वरूप डोली में हलचल होने
लगी। दुल्हन को तकलीफ हुई होगी यह सोचकर मैंने अगले कंहार से पूछा आपको थोड़ी ही
देर हुई है इस डोली को ऊपर उठाए हुए, क्या इतनी जल्दी थक गए ? देखने में तो आप मोटे और स्वस्थ्य है। क्या आप से इतना भी भार सहा नही जाता ? दुल्हन को तकलीफ क्यों पहुंचाते हो ? वह कंहार था बाल्टी, जो लोहार की कृपा में बाल्टी बन गया थो। वह कुशल वक्ता भी था। मेरी
उलाहनापूर्ण बात सुनकर शान्तचित होकर कहने लगा। मैं कंहार नहीं हूं। मैने डोली को
नहीं उठाया है, न ही मैं थका हूं। मैं मोटा भी नहीं हूं। न कभी मुझे भार सहन करना ही पड़ता है।
जहां तक दुल्हन की बात है,
उसे कष्ट कैसा ? मेरा उससे क्या सम्बन्ध ?
भूत और
भविष्यत् नगरवालों के लिए यह बात अटपटी लगेगी। मैं तो इसकी शैली का ठीक से समझता
हूं। मैने उससे कहा आप प्रत्यक्ष मोटे दिख रहे है, डोली अभी भी आपके
कन्धे पर है, जो शरीरधारी है उसे भार वहन करना पड़ता है और उसे थकना भी होता है। आपकी चाल और
पिछले कंहार की चाल में तालमेल नहीं है। आप दोनों कंहारों का डोली में और डोली का
दुल्हन से कार्यकारण सम्बन्ध है। अतः इस चाल की प्रतिकूलता का असर दुल्हन पर पड़ना
भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। क्या यह सब झूठ है ?
ये सब बातें
सुनकर वह कंहार कहता है - तुमको प्रत्यक्ष क्या दिखाई देता है, मुझे पहले यही बताओं,
मैं मोटा और स्वस्थ्य हूं यह बात बाद में करना। तूने डोली
को वहन किया, इस समय भी वह तेरे ही कन्धों पर रखी हुई है - तुम्हारा ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या
है। तुम प्रत्यक्ष का अर्थ तो जानते ही नहीं हो, मैं तुम्हे बताता हूं, ध्यान से सुनो।
देखो प्रत्यक्ष
तो यह है कि पृथ्वी के बहुत छोटे अंश के ऊपर मेरे पैर रखे है, पैरों के ऊपर जंघाएं और जंघाओं के ऊपर दोनों उरू तथा ऊरूओं के ऊपर उदर है। उदर
के ऊपर वक्ष स्थल, वक्ष स्थल के ऊपर दो कन्धे रखे गये है और उसके नीचे दो हाथ लटक रहे है। कन्धे
के ऊपर डोली को थामने वाला काष्ठ रखा गया है, काष्ठ के ऊपर डोली है और उस डोली
में दुल्हन बैठी है। इनमें मेरे ऊपर बोझ कहां रखा गया है ? इसमें मैं ढोने वाला ही कहा हूं ? यहां भार वहन करने की चर्चा ही
क्यों करते हो ? तुम जो मोटा कहकर आरोपित करते हो, यह तो प्रत्यक्ष में तुलनात्मक है।
किसी को दुबला कहकर उसके सापेक्ष में अन्य को मोटा कह देना कैसा प्रत्यक्ष है ? यह तो वीरबल की मूर्खता वाली बात है। किसी लकीर को छोटा करना हो तो उसके सामने
बड़ी लकीर खींच दें और उसे बड़ा करना हो तो उसके सामने उससे भी छोटी लकीर खींच दें।
यह सब वास्तव में परस्पर में सिद्ध हो सकता है, निरपेक्ष में नहीं। अतः आपका इस
शरीर पर आरोपित करना कि यह मोटा है आपको पूर्वाग्रह से ग्रसित सिद्ध करता है
प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं। जिसे ‘आपका‘ कहा जाता है, जिसे आप ‘दुल्हन‘ कहते है यह ‘डोली‘ तथा जिसे वहने करने वाला शरीर कहा जाता है, मैं, तुम, दुल्हन समस्त जीव पंचभूतों से ही वहन किए जाते है। तथा यह भूतवर्ग भी गुणों के
प्रवाह में पड़कर ही बहा जा रहा है। ये सत्वादि गुण भी कर्मों के वशीभूत है और
समस्त जीवों में कर्म अविद्याजन्य ही है। मुझ पर भार का आरोप करने पर यह डोली जो
लकड़ियों का रचनात्मक समूह अर्थात वृक्ष है, जो व्यवहारकाल में डोली कही जाती
है भी भार वहन करने वाली हो जायेगीं। तथा इस युक्ति से तो अन्य सभी जीवों ने न तो
केवल डोली बल्कि सम्पूर्ण पर्वत, वृक्ष, गृह और पृथ्वी आदि का
भार उठा रखा है। मैं जब प्रकृतिजन्य कारणों से सर्वथा भिन्न हूं तो इसका परिश्रम
मुझे कैसे हो सकता है ? जिस द्रव्य से यह डोली और दुल्हन बनी हुई है उसी से यह आपका, मेरा तथा औरों का शरीर भी बना हुआ है, जिसमें ममत्व का आरोप होने से ‘भार वहन करने‘ आदि जैसे शब्दों की उत्पति हो रही है।
पंचभूत समूह से
इस जगत का स्थूल तथा सूक्ष्म रूप से निर्माण, स्थिति और लय हो रहा है। इस प्रकार
मेरे ऊपर भार वहन करने के आरोप के कारण सब से सब भार वहन करने वाले हो जाते है तो
मेरे ऊपर पृथक रूप से भार वहन करने तथा थकने का दोष-रोपण क्यों करते है ? मैं कार्य कारणरूप प्रवाह में जब हूं ही नही तब डोली में स्थित दुल्हन को
तकलीफ हो या न हो यह मेरा विषय नहीं। जहां तक तकलीफ वाली बात है, तो इन महाभूतों को तकलीफ ही कहां होती है ? उस सत्ता की नित्य सत्तास्फूर्ति
से जो अविद्याजन्य गुणों के प्रवाह से प्रवाहित से प्रतीत होते है तथा जिनके
द्वारा उस सत्ता को किसी भूत में जितने क्षण उसी सत्ता का मिथ्यारोपण किया जाता है, तभी तक भ्रामक रूप से मन बुद्धी के भ्रामक अस्तित्व को tतकलीफरूप भ्रम भी हुआ
करता है। इस भ्रामक तकलीफ को देखने के लिए मिथ्या दृष्टि का आश्रय लेना होता है, जिसका आश्रय लेकर आप मुझे कहते है कि “दुल्हन को क्यों तकलीफ दे रहे है ?”
यदि आप मोटी
बुद्धी से भी प्रारब्ध के अस्तित्व को स्वीकार करते तो उसके तकलीफ का कारण मुझे न
मानकर उसी पूर्वकृत अविद्याजन्य कर्मों को ही मानते, या अपने पापमय
प्रारब्ध को क्षय करने के लिए डोली में तकलीफ सहन करने के लिए बैठी हुई है, ऐसा मानते। आप स्वयं तो नास्तिक है। न तो आपको प्रारब्ध पर भरोसा है न
प्रत्यक्ष या परोक्ष पर। आप कहते है कि मेरे ऊपर डोली है ? ऊपर और नीचे क्या होता है ? दायें और बायें क्या होता है ? ये सब परस्पर सापेक्ष है। खाली जगह में जब कोई वस्तु आ जाती है तो उसी के कारण
आगे-पीछे, दायें-बायें तथा ऊपर-नीचे हो जाता है। पांच महाभूतों के गुरूत्व को भी यदि
स्वीकार करें तो सभी ऊपर नीचे है, सभी दायें-बायें हैं। यह जगत्
पंचमहाभूतों से व्याप्त है। अतः आपको ‘मेरे कन्धे के ऊपर डोली रखी गई है‘ ऐसा कहना उपयुक्त नहीं।
यह सब बातें
सुनकर मेरी इच्छा हुई कि मैं इनसे पूछ लूँ कि आप कौन है और जब ये कहेंगे कि मैं
फलां हूं, या अमुक हूं तो मैं भी जोड़-घटाकर तथा विचार कर उस प्रश्न का उत्तर दे सकूंगा
जो कि मुझसे पूछा गया है।
मैने उनसे पूछा, अच्छा अब यह बताइये कि आप कौन है ? इस प्रश्न को सुनने के बाद वह कहना
है कि “मैं अमुक हूं यह बात नहीं कह सकता।” आत्मतत्त्व शरीर में इस प्रकार व्यवस्थित है कि उसे
पृथक करके ही बताया जा सकता है। तो फिर ‘‘मैं‘‘ उसे ‘अहं‘ शब्द से कैसे बता सकता हूं ?
उसके न कह सकने के
पीछे जो भाव निहित था उसको समझकर मैं पुनः लगा। मन की तीन अवस्थाएं है। (1) जाग्रत, (2) स्वप्न और (3) सुषुप्ति। जगत के भी तीन भेद है। (1) अध्यात्म, (2) अधिभूत और (3) अधिदैव। अर्थात इन्द्रियां, पंचमहाभूत और पुरूष। ये विविधताएं जिसकी
सत्ता से स्फुरित है, अनुरंजित है, जिसकी सत्ता से सत्य के समान प्रतीत होती है ये विविधताएं न रहने पर भी जिसकी
सत्ता बनी रहती है समाधी लेने पर भी यह सत्ता एकरस रूप से रहा करती है। यह सत्ता
तीनों से परे और तीनों में अनुगत जो चैथा तुरीय तत्त्व या ब्रहतत्त्व है, जिसकी शक्ति से सत्तावान होकर मैं प्रश्न करने में समर्थ हूं और आप उत्तर देने
में समर्थ है, डोली को वहन करके ले जाने में आप समर्थ है। तथा जगत् के समस्त प्राणी नाना
प्रकार की चेष्टाएं करने में समर्थ है। ‘वहीं‘ मैं हूं ऐसा आप क्यों नहीं कह सकते ? ऐसा कहने पर तो उस ‘वही‘ पर किसी प्रकार का दोष भी नहीं आयेगा तथा उत्तर भी हो जायेगा। आपने जो कहा कि ‘मैं कौन हूं - यह नहीं बताया जा सकता‘ इसी बात को सुनने कि मुझे इच्छा हो
रही है। ‘जो है‘ अर्थात जो आत्मा कर्ता-भोक्तारूप से प्रतीत होता हुआ सत्तारूप से वर्तमान है ‘वहीं मैं हूं‘ ऐसा कहा जाना सम्भव है।
इस प्रकार मेरी युक्तिसंगत बात पूर्ण होने पर यह कंहार करने लगा आपका कहना ठीक
सा प्रतीत होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ‘वह‘ मैं हूं ही नहीं। ‘वह‘ तो ‘वही‘ है। यह तो मैं हूं। किन्तु जब उस ‘वह‘ का इस ‘मैं‘ के सानिध्य प्राप्त करने की भ्रामक प्रतीतियुक्त प्राप्ति का भान होता है, तब उस आश्रयरूप ‘मैं‘ - ‘है‘ के विकारानुरूप रूपान्तरित होकर ‘मैं‘ “हूँ” हो जाता है। यह रूपान्तरण उस ‘वह‘ की नित्य सत्तास्फूर्ति की गतिशीलता के समान ही होने लगता है। फलस्वरूप जो ‘है‘ है वह नित्यता को लिए हुए ‘हूं‘ के विकार के रूप में स्थित हो
जाता। व्यवहारकाल में देखा जाता है कि श्वांस लेते समय ‘सः‘ अर्थात ‘वह‘ शब्द उच्चरित होता है तथा लौटते समय ‘हं‘ अर्थात ‘मैं‘ हो जाता है। श्वांस लेते समय आक्सीजन (प्राणवायु) जाता है और लौटते समय
कार्बनडाई आक्साइड बनकर बाहर निकलता है।वही आक्सिज़न ही कार्बनडाई ऑक्साइड है यह
किस युक्ति से कहा जा सकता है, क्योंकि दोनों वायु के गुण अलग-अलग है
और कार्य भी अलग-अलग। शरीर तो अनात्म वस्तु है, शरीर आत्मा नहीं है। ‘वह‘ जो आता है, जिसके कारण शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अन्तःकरण अपने-अपने कार्य करने में समर्थ हो जाते है, इस क्रियारूप अनात्म शरीर में आत्मा अर्थात् ‘स:‘ के सानिध्य के फलस्वरूप भ्रान्तिमूलक ‘अहं‘ अर्थात ‘मैं‘ की उत्पति हो जाती है। यही दोष का कारण है। अतः मैं वहीं हूं अर्थात ‘सोऽहं‘ कदापि नहीं कह सकता और ‘हंऽसो‘ भी नहीं कह सकता, क्योंकि यह ‘हं‘ तो ‘सः‘ नहीं है और न ही ‘हं‘ ‘सः‘ में बदल सकेगा। अतः केवल ‘सः‘ अर्थात् ‘वही‘ ही कहा जा सकता है।
यह कहने के लिए
भी दो स्थितियां है। एक तो यह कि ‘हं‘ खत्म हो जाए अर्थात
निर्विकल्प समाधि में पहुंचा जाए, लेकिन समाधि में पूछना ही क्या और कहना
ही कैसा ? दूसरी स्थिति है जाग्रत अवस्था में जब ‘सः‘ अर्थात् ‘वह‘ जो श्वांस के माध्यम से भीतर जाता है उस समय कहा जाय कि मैं ‘वह‘ हूं, परन्तु श्वांस लेते समय कोई बोल नहीं सकता। बोलने के लिए श्वांस का बाहर की ओर
फेंकना होता है। अतः यहां भी मैं ‘वह‘ हूं ऐसा नहीं कह सकता।
यदि बोलने भर के लिए भी ‘मैं वही हूं‘ इस प्रकार कह दिया जाय तो प्रश्न उत्पन्न होगा कि कौन है जो ‘मैं‘ वही हूं कहता है ? ‘अहं‘ शब्द का उच्चारण कंठ, जिह्वा, दन्त, ओष्ठ और तालु से होता
है, किन्तु ये सब उस शब्द के उच्चारण के कारण है, ‘अहं‘ (मैं) नहीं। इस प्रकार जिह्वादि कारणों के द्वारा यह वाणी ही अपने आपको ‘मैं हूं‘ कहता होगा, ऐसा मानना होगा। परन्तु जिह्वा को तो केवल घूमने और तालु, दन्त आदि को छूने से मतलब रहता है, ‘मैं‘, ‘तूं‘, ‘वह‘ से नहीं। अतः किसी भी प्रकार से मैं ‘वह‘ हूं या मैं अमुक हूं
नहीं कह सकता।
जब कंहार के सम्बन्ध
में विचार करता हूं तो इस बात का हल नहीं निकलता कि मैं कौन हूं ? तब क्या मैं उस कंहार के विचार को अपना विचार बनाकर कह दूं कि ‘मैं कौन हूं‘ या ‘मैं वही हूं‘ कह नहीं सकता ? तब तो भूत नगर वाले तो मेरे उत्तर की प्रतीक्षा में आश लगाए खड़े है, कहने लगेंगे कि जब आप इतने बुद्धिमान होर अपने बारे में नहीं बता सकते तो आपकी
सारी बुद्धिमत्ता बेकार है। आपके इस न बताने के पीछे न बताने की इच्छा सुक्ष्म रूप
से विद्यमान हो सकती है या सम्भव है आपका सारा पोल खुल जाएगा, ऐसा सोच कर आप यह नहीं बताना चाहते हो कि आप कौन है। इस प्रकार की बातें जब वे
सोचने लगेंगे तो ठीक नहीं होगा। अतः मुझे और पूर्व की घटनाओं का स्मरण करके विचार
करना चाहिए कि इस प्रश्न के उत्तर में क्या बोलूं ?
मुझे याद आ रहा है। बहुत समय
पहले मेरे ही आकार के एक ड्रम से मेरी मुलाकात हो गई थी। वह द्वापर युग की बात थी।
उस व्यक्ति का नाम था अर्जुन। लोग उसे भगवान श्री कृष्ण जी का भक्त मानते थे। मैनें
उनसे जो बातें पूछी और उन्होंने जैसा-जैसा उत्तर दिया यह सब अभी तरोताजा है। मैने
पूछा ‘आप कौन है ?‘ अर्जुन - ‘मैं ज्ञानी हूं।‘ मैं - ‘आप कब से ज्ञानी हो गए ? अर्जुन ‘जब मुझे महाभारत युद्ध
के समय भगवान श्री कृष्ण जी ने तत्त्व ज्ञान तथा विराट स्वरूप का दर्शन कराया था। प्रश्न
- मैं ‘मैं‘ अज्ञानी हूं इसलिए आप ज्ञानी है या आप ज्ञानी है ?‘ अर्जुन - ‘आप चाहे जो हों, मैं तो ज्ञानी हूं, क्योंकि मुझे तत्त्व ज्ञान मिला है और ऐसा ज्ञान देवताओं को भी दुर्लभ है। जिस
प्रकार मुझे विराटस्वरूप का दर्शन हुआ वह न किसी को हुआ है और न होगा, ऐसा स्वयं भगवान कहते है। यह ज्ञान न जप से, न योग से, न उग्रतप से, न क्रियाओं से, न दान देने से ही मिल सकता है। यह मात्र उनकी कृपा से ही सम्भव है, जो मुझे प्राप्त हुआ है। मैने युद्ध के मैदान में ज्ञान प्राप्त करने के लिए
कुछ भी नहीं किया, सिर्फ उपदेश सुनता रहा। बातों ही बातों में मुझे विराटस्वरूप का दर्शन कराकर
कृतकृत्य करा दिया। अब मैं परमधाम का अधिकारी हूं। मैं - ‘आपने जो कुछ भी कहा है वे सभी मैं इस समय बिना विवाद के स्वीकार कर लेता हूं।
निष्चय ही आप कृपा पात्र थे जो सर्वोत्तम ज्ञान प्राप्त कर सके। अब आपके लिए कोई
कर्म नहीं तथा आप निश्चय ही परमगति को प्राप्त करने वाले है। किन्तु अब मैं जो जो
प्रश्न करता हूं उसका आप विस्तापूर्वक उत्तर दीजिए। मैं - ‘आप ज्ञानी है या श्री कृष्ण जी ?‘ अर्जुन ‘श्री कृष्ण जी। ‘मैं‘ - तो फिर आप ज्ञानी नहीं हुए। यदि अपने आप को अपने कम ज्ञानी (ज्ञानवान) कहेंगे
तो ‘ज्ञान‘ शब्द में आक्षेप आ जाएगा। कम ज्ञानी कहने पर जितना कम है उतना अज्ञान भी
स्वीकार करना पड़ेगा। यदि आप ‘ज्ञान‘ शब्द का अर्थ ‘जानकारी‘ से रखते है और कहते है कि आपको इस बात का ज्ञान है कि श्री कृष्ण जी भगवान है
और आप तत्त्व ज्ञान से इस बात को जानते है तथा अन्य कोई नहीं जानता तो मेरे इस
प्रश्न का उत्तर दें कि क्या आपको सम्पूर्ण ब्रह्म, सम्पूर्ण अध्यात्म और
सम्पूर्ण कर्म की जानकारी है ? अर्जुन ‘नहीं‘। मैं - ‘यदि आप ‘जानकारी है‘ कह देते तो मैं पूछता कि अभिमन्यु की मृत्यु में आपको शोक क्यों हुआ, श्री कृष्ण जी के चले जाने के बाद इनकी रानियों की रक्षा में कोल-भीलों से
क्यों पिटाई खाए, आदि आदि। मै - जब आप जान गए थे कि श्रीकृष्ण जी साक्षात् परब्रह्म है तो उनका
आश्रय लेकर, उनको सर्वस्व समझकर, तद्भाव भावित होकर कर्मफल के साथ, कर्म, प्राण और मन को सौंपकर तनिष्ठ जीवन यापन क्यों नहीं किए ? भगवान श्री कृष्णजी ने कहा है ‘जो व्यक्ति वृद्धावस्था और मृत्यु
से मुक्त होने के लिए मेरे शरण होकर यत्न करता है, वही सम्पूर्ण ब्रह्म, सम्पूर्ण
अध्यात्म और सम्पूर्ण कर्म को जानता है। ‘ आपने उनके शरण में रहकर यत्न क्यों नहीं किया ? क्या यह आवश्यक नहीं था ? सुभद्राजी का हरण करना आवश्यक समझ में आया ? गाण्डीव धनुष चलाने के
गुणाभिमान से फुर्सत नहीं मिला ?
मैं - ‘आप कहते है कि ऐसा ज्ञान सिर्फ
आपको ही मिला है। क्या यशोदा जी को विराट स्वरूप का दर्शन नहीं हुआ था ? आप ही की तरह बातों बातों में तत्त्वज्ञान प्राप्त करने वाले उत्तंक मुनि के
बारे में क्या आपने नहीं सुना ? आपको याद होना चाहिए कि जब एक बार
महाभारत युद्ध खत्म हो चुका था तब एक बार आपने भगवान श्री कृष्ण से कहा था कि हे
भगवान् आपने महाभारत युद्ध के समय जो तत्त्वज्ञान मुझे कराया था अब मुझे स्मरण
नहीं रहा, मैं भूल चूका हूं, अतः कृपा करके आप वही पुनः बताइए। जब आप में प्राप्त की हुई ज्ञान की रक्षा की
भी क्षमता नहीं और भुलक्कड़ है तो आप किस तरह के ज्ञानी है ?
आप से मैने पूछा था कि आप कौन है तो आप जल्दीबाजी में आने आपको ज्ञानी कह बैठे, अब आपको क्या कहा जाय ?
आपकी बातों पर किस तरह भरोसा किया जाय ?
अब मैं सोचता हूं
कि जब भगवान् श्री कृष्ण के भक्त अर्जुन को भी ‘आप कौन है ?‘ के उत्तर में मौन हो जाना पड़ता है तो मैं सहज की कैसे कह दूं कि मैं फलाना या
अमुक हूं ? अतः अभी और मुझे विचार कर लेना चाहिए कि कौन सा उत्तर देना उपयुक्त होगा, जिससे कि भूत, वर्तमान् और भविष्यत् तीनों नगरवासियों को किसी प्रकार की आपत्ति न हो।
मैं विचार कर ही रहा
था कि अचानक भगवान् श्री कृष्ण जी से मिलने का विचार आया। विचारों के क्रम में मैं
उनसे मिलता हूं। मैने उनसे भी यही प्रश्न किया कि ‘आप कौन है ?‘ हम दोनों के मध्य जो बात हुई वह ध्यान देने योग्य है।
श्री कृष्ण जी
कहते है ‘‘मैं‘‘ साक्षात परब्रह्म परमेश्वर हूं, परमधाम का वासी हूं। यह सभी भूत
मुझसे उत्पन्न हुए है किन्तु ये मुझमें नहीं है और मैं तो क्या मेरी आत्मा भी
इनमें नहीं है। मैं एक अंश से ही परमधाम से इस जगत की उत्पति, पालन और संहार कार्य करता हूं। इसके लिए मुझे किसी उपादान कारण की आवश्यकता
नहीं होती। मैं स्वयं में सबकुछ हूं। सबकुछ करने में समर्थ हूं। अखिल जीवों को
सारे बन्धनों से मुक्त करने, तत्त्वज्ञान प्रदान करने तथा ब्रह्म
निर्वाण का विधान करने में समर्थ हूं। मैं सम्पूर्ण भूतों को उत्पन्न कके उसमें सत्तास्फूर्ति
देनेवाला तथा उसके भीतर रहकर भी नित्य परम-धाम का वासी हूं। धर्म की रक्षा, साधुओं का त्राण तथा दुष्कृति विनाश की हेतु देवताओं की पुकार के कारण मैं
एकदेशीय होकर भी प्रकट होता हूं जिसे लोग मेरा पूर्णावतार होना कहते है। इसके लिए
कोई बन्धन नहीं है। अपने कार्य सम्पादन के लिए देश, काल, अवस्था और प्रयोजन के अनुरूप पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय कल्याण करने
वाली रीति-नीतियों को स्वीकार कर अपने आचार और व्यवहार में नियन्त्रण रखते हुए
किसी भी शरीर में टिक सकता हूं। मैं अपनी भगवत्ता अक्षुण्ण रखते हुए जीव जगत में देह धारण करके विचरण करता हूं। मैने सत्ययुग
में श्री विष्णुजी के शरीर का आश्रय लिया था, त्रेता में श्री रामचन्द्रजी के
शरीर का आश्रय लिया था और इस द्वापर युग में इस कृष्ण शरीर का आश्रय लिया है, जो आपके सामने है, किन्तु इस बात को केवल तत्त्वज्ञान से हो जाना जा सकता है और कोई उपाय नहीं।‘ मैं - ‘मैने आपको तत्त्व से जान लिया है अब मैं आपसे जो कुछ पूछता हूं, कृपया संक्षेप में बताइए। आप भगवान है तथा आप में वह सर्वोच सत्ता है इस बात
को कौन जानता और मानता है ? ‘ श्री कृष्णजी ‘मैं भगवान हूं इस बात को मात्र दो व्यक्ति जानते है। एक तो स्वयं मैं अपने
आपको जानता हूं और मानता हूं, और दूसरा वह जो मुझे जानता है और मानता है
जिसे मैं तत्वज्ञान देकर अपना परिचय देता हूं। इसके अतिरिक्त जो अव्यक्तोपासना में
लगे है अर्थात् लोटे आदि पात्रों को पटकने में लगे है उनकी सिद्धि होने पर मैं
उनके लिए मात्र शक्तिरूप से अंशतः जानने में आता हूं। जिस तरह बिल्ली अपने बच्चे
को तथा चूहे को दांतों से पकड़ती है, बच्चे की रक्षा होती है किन्तु
चूहे की जान ही निकल जाती है, उसी तरह मेरा व्यवहार भक्त और दुष्टजनों
के प्रति होता है। इसी पृष्ठभूमि में अन्य लोग जिन-जिन भावों से मुझे देखते है और
मानते है वे भी कुछ न कुछ मानते है, किन्तु ऐसा मानना और जानना मुझको
और जानना और मानना नहीं है।‘
मैं ‘जो लोग आपको तत्त्वतः
जानते है, उनकी दृष्टि में आप क्या है ?‘ श्री कृष्ण जी ‘उनकी दृष्टि में मैं भगवतत्त्व की प्रत्यक्ष/साक्षात मूर्ति हूं, वे लोग मेरे अवतार जीवन में विद्यमान भगवत् भाव, जन्म-कर्म के दिव्य भाव
तथा अप्राकृतिक लीलाभाव का आभास पाते रहते है।‘ मैं ‘जो लोग आपको तत्त्वतः नहीं जान पाते या माया के बाह्य आवरण का भेदन कर साक्षात
दर्शन करने में समर्थ नहीं होते, वे क्या समझते है ? ‘ श्री कृष्णजी -‘यहां दो तरह के लोग देखने को मिलते है। (1) पहले पक्ष में वे लोग है जो शिक्षित, अशिक्षित सर्वसाधारण लोग है और मुझे असाधारण शक्तिसम्पन्न, असाधारण ज्ञान-सम्पन्न,
कर्तव्यनिष्ठ एवं विषिष्ट पुरूष समझते है। इसके साथ-साथ वे
मेरे महापुरूष भाव जन्म-कर्म के अशेष कल्याणप्रद लौकिक भाव भी ग्रहण करते है तथा
यह भाव उन लोगों के ह्दय में सदा के लिए अविस्मरणीय और अनुकरणीय रूप में रहता है।
(2) पक्षान्तर में जो लोटा आदि पात्र पटकने वाले है, अर्थात मोहित करनेवाली
राक्षसी और आसुरी प्रवृति को ही धारणा किए हुए है, उन सभी भूत और
भविष्यत् नगरवासियों की मेरे प्रति की समस्त आशाएं व्यर्थ है, मेरे प्रति किए हुए उनके समस्त कर्म निष्फल है तथा उनके द्वारा प्राप्त समस्त
ज्ञान व्यर्थ है, क्योंकि वे लोग मेरे व्यक्त देह को, व्यक्त ज्ञान को, व्यक्त शक्ति को, व्यक्त कर्म और कौशल को और व्यक्त परिणाम और चांन्चल्य को ही देखते है। उसके अन्तर्गत
निगूढ़ भाव से और प्रकटित मेरे अव्यक्त, अत्युत्तम और परम भाव को देखने में
समर्थ नहीं हाते। इस मनुष्य देह में विद्यमान मेरे सच्चिदानन्दमय नित्य देह को, इस प्रपंन्चाभिव्यक्त जीव भाव के अन्तर्गत प्रकाशमान मेरे भूत महेश्वर भाव को, इस व्यक्त और व्यक्त भाव के प्राणस्वरूप मेरे भूत महेष्वर भाव को न देखकर तत्त्व-दृष्टिविहीन
बहुतेरे लोग मुझ अवतारी की अवहेलना करते है, मेरे कार्य में दोष खोज-खोज कर
मेरे श्रेष्ठत्व को भी अस्वीकार करते है। फलस्वरूप वैसे लोग कल्याण पथ से भ्रष्ट
होकर अधोगति को प्राप्त होते है। ‘ मैं‘ - आपको तत्त्वतः जानने
वाला हर युग में प्रायः कितने हो है ?‘ श्री कृष्णजी ‘मुठ्ठीभर‘। मैं ‘बस मुठ्ठीभर लोग आपको जानते है ? अच्छा जो लोग आपको जानते है वे तो
आपके बारे में बता सकते है न ?‘ श्री कृष्णजी नहीं। मैं भगवान हूं इस
बात को मेरे अतिरिक्त कोई नहीं बता सकता क्या अर्जुन विराट स्वरूप दिख सकता है ? उसी तरह जो भगवान होता है वही अपने आपको बता और जना सकता है। वही बताते समय
गुरू और प्रत्यक्ष होते समय भगवान (गोविन्द) हो जाता है। इसलिए अर्जुन जैसा
व्यक्ति के लिए ही यह बात है कि ‘‘गुरू गोविन्द दोउ खड़े काको लागूं
पाय......।‘‘ मैं ही अर्जुन के लिए गुरू हूं तो उसके लिए उसी क्षण भगवान भी। मेरे बारे में
मेरा भक्त या ज्ञानी सिर्फ इतना ही कह सकता है कि ‘फलाना अवतारी है‘। मैं अवतारी हूं इसका आभास प्रस्तुत करा सकता है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कर सकता। यह आभास या ‘‘फलां ही अवतारी है‘‘ यह जान लेना भी बड़ा ही दुरूह है, क्योंकि मुझे जानने वाला मेरे बारे
में सहज ही कभी भी नहीं बताएगा।‘ मैं - ‘यदि ऐसी बात है, तो सन्त महात्मा लोग आपके विषय में जो कुछ बताते है, वह क्या बताते है ? श्री कृष्णजी ‘वे लोग मुझ परमतत्त्व को न बताकर मेरी इस जगत को व्याप्त किए हुए मेरी दिव्य
शक्ति और दिव्य ध्वनि आदि को ही ‘‘परमात्मा‘‘ बताते और समझते है। उन
लोगों की पहुंच आत्मा तक ही होती है और उससे आगे का ज्ञान न होने के कारण उस परमतत्त्व
को आत्मतत्त्व स्वीकार कर शब्द भेद के अतिरिक्त दोनों में कुछ भेद नहीं समझते। ऐसा
इसलिए होता है कि सृष्टि में आत्मज्ञान से बढ़कर किसी के पास कोई ज्ञान होता ही
नहीं और मेरा अवतार हर युग में एकबार होता है। मेरी उपस्थिति के अभाव के कारण
समस्त आत्मज्ञानी जन आत्मा को ही परमात्मा घोषित करते है और ऐसा ज्ञान देकर स्वयं
को परोक्ष रूप से स्वयं को अवतारी कहते-कहवाते है, तथा अपने अनुयायियों
से अपनी आरती उतरवाते है। इनमें से कुछ लोग तो अपने को भगवान भी घोषित कर देते है।
उदाहरणस्वरूप तुम इस पत्र को देखो। इस बार मेरी उपस्थिति में ही करूष देश के राजा पौण्ड्रक
ने मेरी भगवत्सत्ता को चुनौति देकर यह
पत्र लिखा है, जिसे तुम ध्यान से सुनो - ‘‘एकमात्र मैं ही वासुदेव हूं, दूसरा कोई नहीं। प्राणियों पर कृपा करने के लिए मैने ही अवतार ग्रहण किया है।
तुमने झूठमूठ अपना नाम वासुदेव रख लिया है, अब इसे छोड़ दो। यदुवंसी तुमने
मूर्खतावज्ञ मेरे चिन्ह् धारण कर रखे है, उन्हे छोड़कर मेरी शरण में आओ। यदि
मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो, तो मुझ से युद्ध करो।‘‘ अब तुम ही बताओं ऐसे लोगों के साथ कैसा बर्ताव करना उचित है ? ऐसी बहुत-सी बातों पर तुम अपने वर्तमाननगर में विचार कर लेना। ‘ मैं‘ - आपको भलीभांति जान लेने के बाद आपका अनुगमन करना चाहिए कि नहीं ?‘ श्री कृष्णजी - ‘जिसकी जो इच्छा हो सो करे। समझ में आवे तो साथ दे नहीं तो कोई बात नहीं, प्रकृति मेरे अधीन है।
भगवान श्रीकृष्ण जी से
पूछे जाने पर भी उत्तर में निष्चयात्मिक दृष्टि नहीं झलकता, क्योंकि मूढ़, अज्ञानी, ज्ञानी, भक्त आदि के भेद से उनके परिचय में भेद हो जाता है। जिसे तत्त्वज्ञान हो गया
है वह तो समझता है उससे सर्वथा भिन्न अज्ञानी समझता है। जो लोग श्री कृष्ण जी के
कार्यों में दोष-दृष्टि रखने में प्रवित्त है, वे लोग उन्हें कुछ और ही समझते है।
यदि सभी तरह के लोग एक साथ उनके समक्ष उपस्थिति हों और यह पूछा जाय कि ‘आप कौन है ?‘ तो वे कौन सा उत्तर देगें। ऐसा भी सम्भव है कि वे अपने को ‘मैं वासुदेव जी का पुत्र हूं‘ ऐसा भी कह सकते है, क्योंकि भगवान तो सर्वसमर्थ है, उनके पास स्थूल, सुक्ष्म दिव्य और तत्वदृष्टि ये चारों दृष्टियां है। कभी भी कुछ भी कहकर अपना
प्रयोजन सिद्ध कर सकते है।
मैं तो भगवान
हूं नहीं। फिर मैं क्या करूं। ‘आप कौन है‘ इस प्रश्न का उत्तर मैं क्या दूं ? अच्छा अभी और भी उपाय है। अभी तक
मैने शक्ति के साथ शरीरवालों पर विचार किया है, अब मैं निराकार पर भी दिमाग दौड़ाता
हूं। चला जाया जाय देवों की सभा में, जहां ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि रहते है। उन लोगों से पूछा जाय कि वे लोग कौन है फिर उसमें मेरा भी उत्तर
हो जायेगा।
विचार के क्रम में मै पहुँच
गया देवों की सभा में। वहां सभी देवी देवता बैठे हुए थे। मैने ब्रह्माजी से यह प्रश्न
किया कि आप कौन है। ब्रह्माजी - ‘सृष्टि का मूल कारण परमतत्व ही है। तत्त्व
से उत्पन्न होकर, तत्त्व में स्थिर रहकर,
तत्त्व से परिवर्तित होकर यह ब्रहाण्ड तत्त्व में ही लीन हो
जाता है। जगत में उत्पति स्थिति तथा संहारकार्य स्थूल-सूक्ष्मदृष्टिवालों के लिए
ही है, दिव्य दृष्टि और तत्त्व दृष्टि के अन्तर्गत यह सब बातें नहीं हुआ करती। स्थूल
तथा सूक्ष्म दृष्टिवालों अर्थात मोटी बुद्धिवाले लोगों, अर्थात भूत और भविष्यतनगर में निवास करने वालों लिए ही वस्तुओं की उत्पति, स्थिति और विनाश होता है। उदाहरणस्वरूप मनुष्य कहता है कि ‘‘मैं पहले बच्चा था, अभी जवान हूं, बहुत समय बाद बूढ़ा हो जाउंगा और मरूंगा‘‘। जितनी देर वह अपने को वर्तमान
देखता है अर्थात स्थिर या टिका हुआ अनुभव करता है उतनी ही देर की ‘‘स्थिति‘‘ मानी जाती है। उसी की तुलना में उससे पूर्व की स्थिति जिसे वह जन्म होना कहता
है, सृष्टि मानी जाती है,
तथा जो मृत्यु की स्थिति होती है वहीं संहार की स्थिति मानी
जाती है। यह बात समस्त जागतिक पदार्थों में लागू है। इसी को स्थूल तथा सूक्ष्म
दृष्टिवालों को समझने के लिए वर्तमान नगरवाले ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर शब्दों से आरोपित करते है। इस जगत में इन मिथ्या दृष्टियों से
भी विचार किया जाय तो उत्पन्न होना, बढ़ना, बदलना, स्थिर रहना, घटना और नष्ट होना यह क्रम तैलधारावत् है, कहां से शुरू है, वहां रूका है और कहां खत्म होता है यह निर्णय सम्भव नहीं। यह एक चक्र के समान
है। आदमी हरक्षण उत्पन्न हो रहा है, हर क्षण नष्ट हो रहा है। इसी बीच
मनुष्य बचपन, जवानी, बुढापा आदि आरोपित करता है। जब हम स्थूल और सूक्ष्म दृष्टि से अमुक कार्य को
जन्म लेना कहकर आरोपित करते है, उसी को सृष्टि का अथवा ब्रह्मा का कार्य
कहते है। यहीं मैं ब्रह्मा हो जाता हूं।
वास्तव में तत्त्व
दृष्टि से मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। सभी अस्तित्व का कारण परमतत्व ही है, जो परमधाम में रहता है। ‘ मैं - ‘आपको लोग भगवान कहते
है ?‘ ब्रह्माजी - ‘नहीं। मुझे कोई भगवान नहीं मानता। जब किसी ने मानने की चेष्टा की, मैने तत्त्व की ओर इशारा कर दिया। सनकादि जैसे अंशावतारी भी मुझे भगवान नहीं
मानते। जबतक भगवान् या मुझ से बड़ा जो है, उसका पता नहीं मिल जाता तब तक यदि
कोई मुझे भगवान् मान लेता हो तो उसका मानना भी ठीक ही है।‘
इसके बाद मैने
श्री विष्णुजी से पूछा - ‘आप कौन है ?‘ श्री विष्णुजी ने उत्तर दिया - ‘मेरे दो स्वरूप है, इस बात को ज्ञानीजन ही जानते है। पहले स्वरूप के बारे में तो आपको ब्रह्माजी
ने ही बता दिया है। मेरा दूसरा स्वरूप कुछ जटिल है। जब उस तत्त्व को सृष्टिकार्य
के लिए मेरे नाम और रूप का आश्रय लेकर अवतरित होना पड़ा तब से मैं विषेष स्थान
ग्रहण कर चुका हूं। उस परम तत्त्व रूपी परमात्मा का मेरे चिन्मय शरीर में आते ही
मैं जगत का पालनकर्ता विष्णु न होकर साक्षात परब्रह्म परमेश्वर हो गया। यह बात
सतयुग की है। उसी समय मैने श्रीगरूड़जी को तत्त्व ज्ञान कराया था। मैने कभी भी नहीं
कहा कि मैं भगवान हूं। मैने गरूड़जी को उपदेश देते समय तत्त्व को ही भगवान या सब
कुछ बताया। जब उस तत्त्व का कार्य इस चिन्मय शरीर से पूरा हुआ, तब वह तत्त्व पुनः परमधाम की ओर लौट गया। अब मैं पूर्व की भांति साधारण
पालनकर्ता रूप विष्णु हूं। वह तत्त्व बाद में क्रमशः श्री रामचन्द्र जी तथा श्री
कृष्णचन्द्रजी के शरीर में भी आया, किन्तु वे भौतिक शरीर होने के कारण
अब नहीं रहे। परन्तु मैं अब भी हूँ। मूझ में अब वह परमात्मसत्ता नहीं है अतः अब
मुझे भगवान मानने का कोई प्रयोजन नहीं है। यही मेरा संक्षिप्त परिचय है। ‘ मैं ‘ - फिर यह बतलाइए कि ब्रह्माजी और आपको भजने वाले लोग किस लोक की प्राप्ति करेंगे
?‘ विष्णुजी - ‘ब्रह्मलोक और विष्णुलोक तक की प्राप्ति हो सकती है। मुक्ति, अमरलोक या परमधाम की आशा रखना व्यर्थ है। यही बात सतयुग में होती तो मुझको
भजनेवाला परमधाम को प्राप्त होता।‘
इसके बाद मैने श्री शंकरजी से
पूछा कि ‘आप कौन हैं ?‘ यह मुझे बतलाइए। शंकरजी - ‘तत्त्व की प्रेरणा से संहारकार्य होने
के सम्बन्ध में जिस प्रकार श्री ब्रह्माजी ने निरूपण किया है वही सत्य है। स्थूल
और सूक्ष्म दृष्टिवालों के लिए ही मैं शंकर हूं। यों समझिए कि मैं संहार या विनाश
का पर्यायवाची हूं। मैं - ‘आपको लोग भगवान कहते है, क्या यह बात ठीक है ?‘ शंकरजी - ‘नहीं। मैं भगवान नहीं हूं। मैने कभी भी, किसी से भी अपने आपको भगवान नहीं
कहा है। जो लोग मुझे भगवान मानते है, वे उचित नहीं करते। मैं देवताओं
में श्रेष्ठ महादेव हूं, जैसे मंत्रियों में श्रेष्ठ प्रधानमंत्री होता है। मैने अपनी अर्धांगिनी श्री
पार्वतीजी को उपदेश देते समय कहा था कि एक निरंजन निराकार ही महान देव है जिससे इस
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई है। उसी से इसका परिवर्तन होता है, उसी में रमण करता है और उसी में लय भी करता है। उसे ही परम तत्त्व कहते है।
बहुत पहले मेरी अर्धांगिनी के रूप में सतीजी रहती थी। सभी लोग मुझे ही भगवान मानते
है यह देखकर सतीजी को विश्वास था कि मैं भगवान हूं। त्रेतायुग में मुझे
श्रीरामचन्द्रजी को गदगद् हृदय से अभिवादन करते देखकर उसी भाव में भावित होकर उनका
जयकार करते देख सुनकर सती को श्रीरामचन्द्रजी के भगवान होने पर संशय हुआ। उसकी
श्री रामचन्द्रजी के प्रति संशय के निवारण हेतु मैने उसे बहुत समझाया। जब उसका
संशय दूर करना मेरे वश का न रहा तब उसे उस परम तत्त्व का ही प्रभाव जानकर परीक्षा
करने के लिए भेज दिया। अन्ततोत्वा यही हुआ कि उसे टुकड़े टुकड़े होकर बिखर जाना पड़ा।
इन्हीं बिखरे हुए टुकड़ों को भूत और भविष्यत् नगरवाले उन्हीं जगहों पर शक्तिपीठ के
रूप में खड़ा करके अपनी अभीष्ट देवी के रूप में मेरे शक्ति का आरोपण करते है और कुछ
प्राप्त करने की आशा में वृथा पूजा करते है। मैने श्रीरामचन्द्रजी को अभिवादन किया
था उसके पीछे क्या कारण वह संक्षेप में सुनिए। -
‘परमतत्व, आत्मतत्त्व रूपी परमात्मा, जो परमधाम का वासी है, जब जिस शरीर को अधिगृहित करता है तब वह भगवान हो जाता है। सतयुग में उस तत्त्व
ने श्री विष्णुजी के शरीर को अधिगृहित किया था, और त्रेतायुग में श्रीरामचन्द्रजी
के शरीर को अधिगृहित किया। मैने श्रीरामचन्द्रजी को श्री दशरथजी के पुत्र के रूप
में अभिवादन नहीं किया था। शरीररूप में अवतरित साक्षात् परब्रह्म परमेश्वर के रूप
में अभिवादन किया था। सतीजी को इस बात का संशय था कि मैं श्री दशरथ पुत्र श्री
रामचन्द्रजी को नमस्कार कर रहा हूं। ऐसा इसलिए हुआ कि उसे तत्त्व ज्ञान नहीं था
उसे अमर कथा सुनने का अवसर भी प्राप्त नहीं हुआ। जहां तक मेरे परिचय का विषय था
उसके बारे में श्री ब्रह्माजी कह चुके है। मैं संहार कार्य के लिए निमित्त मात्र
हूं।
‘यह बात ध्यान
रखने योग्य है कि मेरी उपासना करने वाले लोग अधिक से अधिक शिवलोक तक ही जा सकते
है। उन लोगों को मैं परमधाम नहीं पहुंचा सकता। मुझको भगवान मानकर उपासना करने वाले
सभी भक्त भगवद्भक्त न होकर राक्षस हो जाते है, क्योंकि वे सभी अनुयायीगण शक्ति
कही ही उपासना करते है। उन्हें शक्ति की ही गरज होती है, भगवान की नहीं। वे रावण, भस्मासुर आदि-आदि जैसे शक्तिशाली राक्षस
हो जाते है। मेरा एक भी ऐसा भक्त मिलना दुर्लभ है जो राक्षस न हो। प्रायः राक्षसी
वृतिवाले लोग ही मुझे भगवान मानकर उपासना करते है। पक्षान्तर में श्री विष्णु, श्रीराम, श्री कृष्ण जो भी परम तत्त्व वाले पूर्णावतारी है उनका एक भी भक्त ऐसा नहीं जो
राक्षस हुआ हो, क्योंकि श्री विष्णुजी,
श्रीराम और श्री कृष्ण वास्तव में तत्त्ववाले है। वे तत्त्व
ज्ञान दे सकते है, परन्तु मैं तत्त्व ज्ञान नहीं दे सकता।‘
मैं - ‘सभी देवों में आपका स्थान उंचा क्यों है ? ‘ शंकरजी - ‘ मैं महादेव हूं। मेरा स्थान इस सृष्टि में सदैव उंचा रहने के पीछे एक मात्र
कारण यह है कि मैने ही सबसे पहले उस तत्त्व को उग्र तप के द्वारा उसका अनुसन्धान करके,
प्राप्त किया। मेरा स्थान भगवान के अवतार के समय ही छोटा
है। अवतार के पूर्व, अवतार के पश्चात् तथा निराकार स्थित में इस लोग में मैं ही सर्वोच्च स्थान पर
हूं। यदि भगवान का अवतार नहीं हुआ हो तो प्राणियों को मेरा ही भजन/अनुशरण करना
श्रेयस्कर है। यह बात उसी प्रकार है, जैसे राजा की अनुपस्थिति में
प्रधानमंत्री सर्वोंच्च होता है। भगवान का अवतार कभी-कभी और निश्चित समय के लिए
मात्र होने के कारण तथा मेरा नित्य स्थायित्व देखे जाने के कारण लोग भ्रमवश मुझे
ही सर्वेसर्वा मान लेते है। इसमें उनका कोई दोष नहीं है। इस बात को जो ज्ञानी
जानता है उसका इस बात को न बताने में दोष है।‘
मैं ‘शिवलिंग की पूजा क्यों होती है और आपका उससे क्या सम्बन्ध है ?‘ शंकरजी - ‘उस परमात्म तत्त्व का शरीर में रहकर शक्तिरूप में साक्षात्कार करने वाला मैं
पहला पुरूष हूं। इस साक्षात्कार के क्रम में मैने ऐसा पाया, मनुष्य का शरीर जो देव दुर्लभ कहा जाता है वह माता-पिता का मलमुत्र है, जो स्वयं निषेध स्वरूप है। यह शरीर अपनी विषमताओं के कारण समता को प्राप्त
करने के लिए नित्य बेचैन रहता है। इसकी संरचना विषमताओं से ही होने के कारण शान्ति
का लेष मात्र भी नहीं है। फलस्वरूप बहिर्मुख होकर बेचैन रहता है। इन विषमताओं की
श्रंखलाओं को समष्टि में मिलाने के लिए यह मनुष्य शरीर अन्य शरीरों से श्रेष्ठ है।
इस शरीर में गुदामूल और लिंगमूल के मध्य मूलाधार चक्र स्थित है, जहां शिवलिंग के आकार का छोटा सा मांस का लोथड़ा है और उसके चारों ओर अर्घा बना
हुआ है। उसी लिंग में बहुत पतली नश है तो ढाई बार कुण्डली मारकर उपर की मुंह गाड़े
हुए है। उस कुण्डलिनीरूपी सर्प को प्रथम बार उर्ध की ओर मैने जगाया। मैं ही उसका
आदि प्रणेता हूं अतः मेरा अविष्कार होने के कारण उसका सम्बन्ध मुझमें जोड़ा जाता है
और उसके सर्प को मूर्ति बनाकर उस मूर्ति के गर्दन में डालकर भूत और भविष्यत
नगरवाले मेरी पूजा करते है। कुछ वर्तमान नगरवासी तो उस कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया
में मेरे नाम का आश्रय लेकर ‘‘शिवोऽहं‘‘ भी कहते है, जबकि मैने ‘‘सोऽहं‘‘ का ही आश्रय लिया था। शुरू में यही ठीक था जो बाद में ‘‘हंऽसो‘‘ होकर पूरा ठीक हो जाता है। यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म है पर वर्तमान नगरवासियों
के लिए यह सामान्य बात है।‘
मैं - ‘आपकी तो श्री रामचन्द्रजी ने भी पूजा की है। उनके इस कार्य आप उनसे श्रेष्ठ
समझ में आते है। इसका क्या रहस्य है ?‘ शंकरजी - ‘‘वह‘‘ तत्व श्री रामचन्द्रजी के शरीर के माध्यम से जगत में मर्यादापुरूषोत्तम का
अभिनय पूरा कर रहा था। वहां जो मेरी पूजा हुई वह मेरी मर्यादा कायम रखने के लिए की
गई थी, न कि मेरी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए। यदि वो मेरी मर्यादा कायम नहीं रखेंगे
तो अवतार पुरूष की अनुपस्थिति में मेरी पूजा इस जगत में फिर कौन करेगा ? अवतार के समय में पूर्ण रूप से सबके सामने अपने श्रेष्ठत्त्व की घोषणा न होने
के कारण तथा न होने तक वो मेरा ही श्रेष्ठत्त्व कायम रहे इस उद्देश्य से मायिक जगत
में इस प्रकार लीला करते है कि उन्हे कोई समझ ही न पाये। द्वापरयुग में उस ‘तत्त्व‘ ने श्री कृष्णजी के शरीर का आश्रय लिया उस समय मर्यादा की विषेष बात न थी अतः
इन्द्रजी के पूजा के विधान की मर्यादा को तोड़कर गोवर्धन पर्वत की पूजा का विधान कर
दिया।
इस मर्यादाहनन् के कारण
इन्द्रजी कुपित हो गए थे किन्तु यदि मेरे साथ ऐसा होता तो मुझे कोई फर्क नहीं
पड़ता। क्योंकि मैं उस ‘‘तत्त्व‘‘ को जानता हूं। ‘‘वह‘‘ स्वतन्त्र है। जिसको जब मर्यादा दे तथा जिसकी मर्यादा जब चाहे हनन कर दे। उसके
सम्बन्ध में कहा भी गया है कि ‘‘परम स्वतन्त्र न शिर पर कोई‘‘। मैं - ‘मेरा आप से एक अन्तिम प्रश्न है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश का जो रूप इस भूत
सौर भविष्यतनगर में प्रचलित है, उसका क्या कारण है ? ‘ शंकरजी - ‘यह गहन प्रश्न तुमने पूछा है। यह समझने लगोगे तो तुम्हारा तिलमें का तेल निकल
जायेगा। अभी मैं संक्षेप में उत्तर दे रहा हूं, विस्तृत रूप में फिर कभी पूछ लेना।‘
‘चिंगारी न
अग्नि को प्रज्ज्वलित करती है और न प्रकाशित ही कर सकती है। उसी प्रकार उस परम तत्त्व
रूपी आत्म तत्त्व में, जो नित्य परमधाम में रहता है, जहां सूरज चांद, तारेगण, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आकाश, मन, बुद्धि आदि को कौन कहे,
यह प्राण भी वहां पर नहीं फटक सकता। उसको वेदों ने भी ‘‘नेति-नेति‘‘ इत्यादि कहकर छोड़ दिया किसी भी तत्त्व वेत्ता ने ‘वह‘ ‘यह है‘, ‘वह‘, ‘ऐसा‘, ‘वह‘, ‘वैसा है‘ कहकर निरूपण नहीं किया। उसके बदले, उसको बोध कराने वाले जितने भी साधन
है, उन समस्त साधनों का निषेध करके उस निषेध का मूल और तात्पर्यरूप से अपना मूल का
बोध कराया। यदि निषेध के आधार की सत्ता न होती तो निषेध कौन कर रहा है, निषेध की वृत्ति किसमें है, इन सब प्रश्नों का कोई उत्तर ही न रह
जाता। अब कहना यह है कि वर्तमाननगर के जो-जो लोग त्रिताप से तप्त होकर, माया ही बाह्य आवरण का भेदन कर, परम सिद्धि को प्राप्त करने हेतु
अपरोक्षनुभूति द्वारा परमात्मा के साथ एकात्म-भाव प्राप्त करके इस संसार को भूल
चूके है, वे जब उसी सत्ता की महामायिक हलचल से इस नगरी के प्रति कारूणिक ह्दय से
द्रवीभूत हो गए और जिसके फलस्वरूप समय-समय में हुए ऐसे लोगों ने उस समय के
नगरीवालों के हित को देखते हुए ‘वहां‘ तक पहुँचने में
जिन-जिन नाम रूपों तथा क्रियाओं को आवश्यक समझा उसे प्रतिपादित किया और व कालान्तर
में जनमानस में व्याप्त हो गया। इसके साथ-साथ, समय-समय पर जो दिव्य शक्तियां
अवतरित हुई उन्होनें उस-उस समय जिस-जिस नाम रूप का आश्रय लिया था, उनके नाम, रूप, स्थान तथा क्रिया समूहों को एकत्रित कर उन्हे ‘उसके‘ (तत्त्व के) ही स्मरण का माध्यम बनाया। जैसे एक बार कामदेव को भस्म करने के लिए
तीसरा नेत्र खोलना, एक बार चाँद को सर में धारण करना, एकबार विषपान करना, एक बार भिक्षा मांगना आदि बहुत सी बातें है। यद्यपि वह कार्य भिन्न-भिन्न समय
में मुझे किसी प्रयोजनवश करना पड़ा था, किन्तु अब भूत और भविष्यत् नगरवाले
उस कारण के रहस्य को समझने की जिज्ञासा छोड़ उन सभी संकेत समूहों को पूजते है। यही
उन लोगों की धर्म की खेती है।
दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह
सकते है कि उस तत्त्व द्वारा (जिस प्रकार ब्रह्माजी ने निरूपण किया है) सृष्टि की
उस कार्य में बहुत दिमाग की आवष्यकता होती है, इसलिए स्थूल और सूक्ष्म
बुद्धिवालों की भी श्रद्धा कायम हो इस हेतु से, निषेध वृति में मद्यत हो ऐसा सोचकर
चार मुंह, चार हाथ और वेद से युक्त ब्रह्माजी के स्वरूप का प्रतिपादन हुआ तथा उसके लिए
विद्या कार्य एवं रचनात्मक कार्य में आवश्यक सरस्वती जी के स्वरूप का निरूपण हुआ, और नीर-क्षीर विवेक हेतु, आवष्यक हंस पक्षी का भी निरूपण किया
गया। उसी प्रकार श्री विष्णुजी को व्यवस्था हेतु धन की आवश्यकता होने से उनके लिए
लक्ष्मी जी का निरूपण किया गया तथा धन का अम्बार केवल उल्लुओं के पास ही रहता है
इससे उसके पास उल्लु के वाहन का निरूपण हुआ। उल्लुओं पर ही श्री लक्ष्मीजी सवार भी
होती है। इस प्रकार मुझमें संहार की शक्ति थी अतः शक्तिरूप से पार्वतीजी का निरूपण
किया गया और शक्ति के प्रतीक के रूप में शेर के वाहन का निरूपण किया गया। वास्तव
में यह सब बातें स्थूल और सूक्ष्म बुद्धि वालों के लिए अर्थात भूत और भविष्यत
नगरवालों के लिए ही लागू होती है, तत्त्वतः कुछ भी नहीं है। यह मात्र कहने
की बात है। मूल बात तो यह है किः
उत्तमो
ब्रह्म सद्भाओ, मध्यमा ध्यान धारणा।
जपस्तुति स्याद्धमा, मूर्तिपूजा धमाधमा।।
अर्थात् उस परमब्रह्म परमेश्वर के प्रति
अपना सद्भाव प्रगट करना सर्वोंत्तम है। इसके अभाव
में उसका ही ध्यान और उसको ही धारणा करना मध्यम है। इसके भी अभाव में उसकी जप और स्तुति
अधम है, और इन सभी के अभाव में उसका मूर्तिपूजन तो अधम से अधम है। आगे क्या बोलूं ?‘
श्री ब्रह्मा, विष्णु और महेशजी के अवधारणाओं के आधार पर ‘मैं कौन हूं ?‘ इस प्रश्न का निराकरण सम्भव नहीं हो सका। वे सभी तत्त्व की बात करते है। सभी
लोग तत्त्व को ही सर्वश्रेष्ठ बताते है। वे सब कहते है कि जिसमें वह तत्त्व है वही
भगवान कहाते है। अब मैं परमधाम जाकर उनसे मिल लूं तो अच्छा होगा। वहां पता चल
जाएगा कि वह कौन है। जब उनका पता चलेगा तो मेरा भी पता चल जायेगा, क्योंकि मैं उनका अंश हूं और वे अंशी है। इस प्रकार के विचार के क्रम में मैं
परमधाम पहुंचा। वहां सब कुछ बड़ा ही विचित्र तथा यह सब अनुभव की बातें है। वहां न
चांद था, न सूरज था और न तारे थे। वहां मन, बुद्धि और इंद्रियों को कौन कहे
मेरा प्राण तक नहीं था। वहां आकाश, वायु आदि पंच-तत्त्व भी नहीं थे।
वहां कुछ था ही नहीं सिवाय तत्त्व के। वहां केवल तत्त्व जिसे परमतत्त्व कहा जाता
है, अपने तप के बल से विद्यमान था। वहां तत्त्व ही जाज्वल्यमान था। मैं तो किसी
प्रयोजन से वहां गया हूं अतः मूझे प्रष्न करना था। मैने पूछा ‘आप कौन है ?‘ मेरे इस पूछने के पीछे यह भाव है कि भूत, भविष्यत् और वर्तमान नगरवासियों को
उस प्रश्न का हल देना हे जो उन्होनें पूछा है कि ‘‘आप कौन है ?‘‘ अभी तक विचार करते करते यहां तक पहुंचा हूं, निराश नहीं लौटायेंगे
ऐसा मेरा विश्वास है। इस परमधाम से आगे पहुंचने के बारे में तो मै सोच भी नहीं
सकता।‘
तत्त्व के तरफ
से आकाशवाणी होती है। ‘तुम यहां बहुत देरी से आए। अब मैं जो कुछ बोलता हूं, उसको तुम समझते हुए सुनो। वाणी और बुद्धि को दूषित करने वाले जो नौ-नौ दोष है, उनसे रहित अठारह गुणों से सम्पन्न और युक्तिसंगत अर्थ से युक्त पदसमूह को
वाक्य कहते हैं। उस वाक्य में जो सौक्ष्म्य, सांख्य, क्रम, निर्णय और प्रयोजन हुआ करते हैं, वह मेरी वाणी में होगा। यह वाणी
सभी के लिए परम हितकर है।
‘तुम कौन हो इस बात को तो तुम
बिल्कुल ही निकाल दो, क्योंकि तेरा तो अस्तित्व ही नहीं है कहने में भी दोष आता है। जैसे तत्त्व यदि सूर्य है
तो उसकी आत्मा प्रकाश है। वही शरीर में पड़कर जीव के रूप में रहता है। जैसे सूर्य
की रौशनी जल से युक्त घड़े में पड़ने पर वहां प्रतिबिम्ब बनता है। पानी में होने
वाले हलचल से उस सूर्य का प्रतिबिम्ब जो टेढ़ामेढ़ा दिखाई देता है, वही घड़ा दुःख है जब जल शान्त हो जाता है, प्रतिबिम्ब साफ-साफ दिखाई देता है
तो वह उस घड़ा का सुख है। घड़े में सूर्य दिखाई देता है लेकिन वहां सूर्य खोजने पर
भी नहीं मिलेगा। उसी प्रकार मैं तो किसी प्राणी में हूं ही नहीं और मेरी शक्ति
अर्थात आत्मा भी किसी प्राणी में नहीं है। जो लोग यह कहते है कि ‘हम सब में आत्मा है‘ वे बिल्कुल निराधार कहते है, यह शास्त्रजन्य प्रमाण और साधनाजन्य
क्रियाओं के विरूद्ध है। ऐसे में कोई योग, जप, तप आदि से सिद्धि
प्राप्त करे यदि यह कहे कि ‘‘मैं नहीं हूं‘‘ अर्थात् यह प्रतिबिम्ब कहे कि ‘मैं सूरज नहीं हूं‘ तो इससे सूरज को क्या फर्क पड़ेगा। उसके ‘सूरज ही मैं हूं‘ कहने पर भी सूरज को क्या मतलब। ऐसे असंख्य जलयुक्त घड़ों में से किसी में सूर्य
की रौशनी पड़ती है तो किसी में नहीं। लाखों घड़े फूट जाएं। ठीक उसी प्रकार तूं कौन
है यह प्रश्न बिल्कुल निरर्थक है।
‘तूं यहां यह प्रश्न
पूछने आया था कि, ‘आप कौन है ? ‘तो इस प्रश्न का उत्तर सुनो। जब परमात्मा नानात्त्व से रहित है तो तुम्हारा मेरे साथ यह प्रश्न कैसे युक्तिसंगत हो सकता है ? मैं यह हूं या मैं वह
हूं कहने के लिए मैं किस युक्ति का आश्रय लूं ? मैं किस जाति, गुण, क्रिया या सम्बन्ध आदि का आश्रय लेकर बोलूं ? देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी शरीरपंचभूतात्मक होने के कारण अभिन्न ही है और परमार्थरूप से भी
अभिन्न है। यदि उत्तर देने के प्रयोजन से भी बोलूं तो वाणी, कण्ठ, ओष्ठ, तालू, जिह्वा, दन्त का आश्रय लेते लेते बात ही कुछ और हो जाती है। वाणी सत्य तो बोल ही नहीं
सकती और जो बोले भी वह मेरा विषय नहीं होगा। अतः तुम्हारा यह पूछना कि ‘आप कौन है ?‘ मात्र वाणी का व्यवहार
है, विचारपूर्ण और युक्तिसंगत नहीं होने से निरर्थक है। तुम अपना प्रश्न अपने पास
रख लो। मैं जब कभी भी प्रकट होता हूं तो निश्चय ही किसी न किसी का आश्रय लेता हूं।
यदि आश्रय न लूं तो समझ में न आउं कि मैं कौन हूं। और जब मैं किसी का आश्रय लेकर
प्रगट होता हूं तो मूढ जनसमाज माया के बाह्य आवरण का भेदन करने में असमर्थ होने के
कारण मुझे “वही” मान लेते है। जैसे मैने अपने आपको श्री विष्णु जी के शरीर के माध्यम से प्रकट
किया तो लोग उस तत्त्व को न समझकर वैष्णव सम्प्रदाय वाले हो गए। जब वही तत्त्व
(मैं) श्री रामचन्द्रजी के शरीर में आया तो उस तत्त्व को जानने के बजाय रामानन्दी
सम्प्रदायवाले हो गए। जब वहीं तत्त्व (मैं) श्री कृष्ण के शरीर में आया तो लोगों
ने राधा-स्वामी सम्प्रदाय खड़ा कर दिया और अब मैं फिर प्रगट हो गया हूं इसलिए बाद
में एक और नया सम्प्रदाय खड़ा कर लिया जायेगा, आप लोगों का तो कोई ठिकाना ही नहीं
है। श्रीराम और श्रीकृष्ण का शरीर भौतिक तथा श्री विष्णु जी शरीर अभौतिक (चिन्मय)
होने के कारण लोग श्री राम और श्री कृष्ण को श्री विष्णु जी का ही अवतार मानते है
तथा मुझे श्री विष्णुजी में एकाकार कर देते है, जबकि मैं श्री विष्णु, श्रीराम और श्री कृष्ण हूं परन्तु श्री विष्णु श्री राम और श्री कृष्ण ‘मैं‘ नहीं है। इन लोगों की तो बात ही क्या अखिल ब्रह्माण्ड के न होने पर भी मैं हूं।
‘अभी जो मैने
कहा वह मेरा पूर्णावतार है। इसके अतिरिक्त मेरा निमित्त पूर्णावतार भी हुआ है,
और होगा भी। जो हो चूका है उनमें से मुख्य नाम इस प्रकार
है। (1) मत्स्य अवतार, (2) कूर्म अवतार, (3) वराह अवतार, (4) हयग्रीव अवतार, (5) नृसिंह अवतार, (6) मोहिनी अवतार, (7) यक्ष अवतार, (8) हंस अवतार आदि किसी में भी आ सकता हूं, किन्तु यदि मूर्ख लोग वराह अवतार
में मुझको सूकर मान लेगें तो मैं क्या करूं। इसके बाद मेरा अंशावतार में भी दो भेद
है। मैं किसी शरीर का आश्रय लेकर मात्र धर्म प्रचार या मात्र संहारकार्य करता हूं।
संहारकार्य में मेरा प्रमुख उदाहरण है श्री परषुराम जी तथा धर्मप्रचार में कुछ नाम
है। जैसे - (1) मनु, (2) सनकादि, (3) व्यास, (4) ऋषभदेव, (5) बुद्ध, (6) आद्य शंकराचार्य, (7)
ईशा मसीह, (8) मुहम्मद साहब आदि। जब-जब मैने इस
भूमण्डल पर अपने कार्य सिद्धि के लिए इन शरीरों का आश्रय लिया, तब सब लोगों ने इन शरीरों का तथा इन शरीरों के माध्यम से अवतरित मेरी वाणी का
सम्मान नहीं किया। जब मैने इन शरीरों को त्याग दिया तब वे उसे पूजने लगे और उसके
नाम पर सम्प्रदाय खड़ा कर भूत और भविष्यत्नगर के लोग अपना गुजर-बसर करने लगे।
उदाहरणस्वरूप श्री बुद्धजी का बौद्ध सम्प्रदाय श्री महावीर जी का जैन सम्प्रदाय, श्री गोरखनाथ जी का गोरखनाथ सम्प्रदाय, श्री कबीर जी का कबीरपन्थी, श्री गुरूनानक जी का सिख सम्प्रदाय, श्री ईसा मसीह जी का क्रिश्चियन
सम्प्रदाय, श्री मुहम्मद साहब का इस्लाम सम्प्रदाय आदि। आपको मैं कहां तक नाम गिनाउं। ‘‘कन फुंकवा‘‘ गुरू, प्रत्येक घरों के चारदीवारी के अन्दर बन्द अपने-अपने ‘‘कुल देवों‘‘ तथा ‘‘ईष्ट देवों‘‘ की तो बात ही क्या है,
वे तो घुट-घुट कर कब के मर चुके है। मेरे कुछ सन्देशवाहकों
जैसे - ईशा मसीह, मूसा, मुहम्मद आदि की तो बहुत दुर्गति कर दी गई। अब उनकी पूजा अर्चना से क्या जब
चिड़िया चुग गई खेत। लेकिन इस बार मैं उन सबों का बदला लिए बिना नहीं छोडूंगा।
देखूं मुझे कौन क्या करता है। इस बार तो मै पूर्ण रूप से अर्थात् चैसठों कलाओं से
युक्त होकर अवतरित हुआ हूं। इस बार तो किसी को भी छोड़ूंगा नहीं।
‘मैने उपरोक्त
जो भी अवतारों के बारे में बताया है, यह सभी नित्य अवतार की पृष्ठभूमि
में ही होता है। इस जगत में जितने भी चराचर जीव है, जो लाखों की संख्या
में उत्पन्न हो रहे है तथा विनाश को प्राप्त होते है यह सब मेरे एक अंश मात्र के
अवतरण से सम्पन्न हो रहा है। वास्तव में कहे तो यह जगत भी मेरा अवतार है। इस
अवतारवाद के रहस्य का मेरे अतिरिक्त यदि और कोई जानता है तो सिर्फ ज्ञानी या भक्त, जिसे मैने अपने अवतार के समय तत्त्व से बता दिया हो। तत्त्व दृष्टि से देखने
पर मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं।‘
मुझसे पूछा गया है कि, ‘‘आप कौन है ?‘‘ इस विषय पर मै बहुत विचार कर चुका हूं। अब तो निर्णयपूर्वक कहना आवश्यक हो रहा
है कि मैं कौन हूं। अभी तक दस प्रकार के ‘मैं‘ पर विचार हुआ है जो इस
प्रकार है। (1) शरीरवाचक ‘मैं‘, (2) कर्मवाचक ‘मैं‘, (3) गुणवाचक ‘मैं‘, (4) जीववाचक ‘मैं‘, (5) योगीवाचक ‘मैं‘, (6) आत्मावाचक ‘मैं‘ (7) ज्ञानीवाचक ‘मैं‘, (8) अवतारीवाचक ‘मैं‘, (9) ब्रह्मा, विष्णु, महेशवाचक, ‘मैं‘ और (10) परम तत्त्व वाचक ‘मैं‘। अब सोचना यह है कि मैं इन दशों में से हूं या इन दोषों से परे हूं। इस पर तो
विचार किया ही जाना चाहिए किन्तु अभी और भी विचारणीय विषय छूट गया है। जिस नगरी
में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि ‘आप कौन है ?‘ उस नगरी के सम्बन्ध में बहुत पहले ही विचार कर लेना चाहिए था। लेकिन कोई बात
नहीं। अब थोड़े समय इस पर विचार करके निश्चय ही प्रश्न का उत्तर दे दिया जायेगा।
यदि विचार करते ही चले जायेंगे तो प्रश्नकर्ता उब जायेगा और मुझे गूंगा करार करके
चला जायेगा। अतः शीघ्र विचार करते है।
एक समय की बात है। तीन नगर थे। (1) भूतनगर (2) भविष्यत्नगर और (3) वर्तमाननगर। तीनों नगर आपस में मिले-जुले हुए से थे। यह सब बातें मुल्ला
गड़बड़दास को मालूम है। तीन नगर और वहां के नगरवासियों का अर्थ इस प्रकार होता है।
जो व्यक्ति बीती हुई बातों को धुनता है, बीती हुई बातें लोगों को सुना-सुनाकर
गौरवान्वित होता है, बीती हुई बातों को वर्तमान समय में घसीट-घसीटकर प्रस्तुत करता है, अर्थात जो भूतकाल पर विश्वास करता हो और जिसको भूत ने पकड़ लिया हो उसे भूतनगर
का वासी कहते है। जो व्यक्ति भविष्य की चिन्ता से चिन्तित, भविष्य में होने वाले उपलब्धियों से सदा आशान्वित रहता है, भविष्य में यह करेंगे वह करेंगे आदि योजनाओं की निरर्थक बातों से लोगों को
प्रभावित करता है तथा स्वयं भी प्रभावित रहता है अर्थात जिसे केवल भविष्य पर भरोसा
हो और वर्तमान में जिसने जीना छोड़ दिया हो वह भविष्यत्नगर का वासी है। जो व्यक्ति
वर्तमान में जो कुछ भी उपलब्ध है उसी को मानता है, भूत की बातों का कोई
याद नहीं करता, भविष्यत् की बातों का कोई याद नहीं करता, भविष्यत् पर जो नजर ही नहीं दौड़ाता, वर्तमान को ही सब कुछ मानता है, उसे वर्तमान नगर वासी कहते है।
अर्थात् जो वर्तमान समय में जीवनयापन कार्य में नाना प्रकार की परिस्थितियों में
अपनी तड़ित बुद्धि से काम लेता है, न भूत को घसीटता है और न भविष्यत् की आशा
रखता है, वह वर्तमानगर का वासी है।
तीनों नगर के लोग आपस में मिले-जुले
हुए से है, अर्थात् सभी नगरवासी इस मिले-जुले से होने पर विचार करते है कि भूत, वर्तमान् और भविष्यत् तीनों की आवष्यकता है। तीनों एक दूसरे के आश्रय से है।
किसी के बिना किसी का भी काम रूक सकता है। वहां का नागरिक था गड़बड़दास। वैसे
गड़बड़दास जैसे बहुत थे जिनमें से कोई भी वर्तमान के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता
था। सभी लोगों की आंख भूत और भविष्यत् में गड़ गई थी। उसी का तुलनात्मक रूप उन सबों
का जीवन था। यहां भूत, वर्तमान और भविष्यत् को समझे बिना वहां के लोगों को समझना मुश्किल है और ‘आप कौन है ?‘ इस प्रश्न का उत्तर देना भी कठिन है। अतः क्रमशः कालचक्र पर विचार किया जाय।
(क) भूतकाल -
(1)
.............
भूतकाल उसे
कहते है जो बीत चुका हो। जैसे किसी के पिता की मृत्यु हो गई कोई परीक्षा में फेल
हो गया, किसी की शादी हो गई, आदि जो घटना बीत चुका है उसे भूतकाल की घटना कहते है।
(2)
.............
भूतकाल उसे
कहते है जिसका वर्तमान् में अस्तित्व नहीं। यदि कोई कोई यह कहे कि उसका अस्तित्व
वर्तमान में रहता है तो यह उसकी मोटी बुद्धि का परिचय होगा। जैसे कोई कहता है कि
वृक्ष भूत था, उसका फल अभी वर्तमान में है, यदि वृक्ष ही न हो तो फल कैसा ? तो यहां विचार करते समय वर्तमान काल की ओर से विचार करना चाहिए। फल तो जो होना
था सो हो गया अब उस फल का अचार बनाकर खाएं या पकाकर खांए या फेंक दें, बहुत सारी सम्भावनाएं है। यदि आप पेड़ गिनने लगेंगे तथा फल का वृक्ष के साथ
सम्बन्ध जोड़ने लगेंगे तो वर्तमान में आपकी स्थिति वही हो जायेगी जो हाथ में फल
होने से पहले थी। अर्थात आप वृक्ष भाव में रहेगें। वर्तमान से कोई लाभ न होगा।
इसलिए कहा गया है कि भूतकाल का वर्तमान में कोई अस्तित्व नहीं रहता। यह बात इसलिए
भी है कि वृक्ष का सम्बन्ध जड़ से, हवाओं से, पत्तों से है तो फल का
सम्बन्ध, जो वृक्ष से टूट चुका है, उसका अचार, रस आदि से है।
(3)
.............
भूतकाल उसे
कहते है, जिसकी अपेक्षा यदि वर्तमानकाल में या भविष्यत्काल में न की जाय तो उसकी
आवष्यकता न हो। जैसे कोई विद्यार्थी परीक्षा में फेल हो गया और कहता है कि वर्तमान
समय में मैं पूर्व की उन कमजोरियों को ध्यान में रखते हुए परीक्षा दूंगा तभी पास
होउंगा। अतः भूतकाल का वर्तमान काल से विषेश सम्बन्ध है, तो उसका कहना विवेकपूर्ण नहीं है। परीक्षा में चाहे वह पास हो या फेल हो, चाहे स्नातक पास करके भी मैट्रिक की परीक्षा में क्यों न बैठा हो, वर्तमान समय में एक विद्यार्थी के लिए पास होने के लिए जितना प्रतिशत अंक
चाहिए, कम से कम ठीक उसी अपेक्षा से परीक्षा की तैयारी करनी ही होगी। चाहे कोई
विद्यार्थी समझे कि गत वर्ष मैट्रिक में फेल हो गया था या वह यह समझे कि अभी मैने
टेस्ट पास किया है। उन लोगों के सामने पुरानी समझदारी यहां किसी का की नहीं।
प्रश्न पत्र हाथों में आते ही ये सब बातें समान है। इसलिए कहा गया है कि यदि
भूतकाल की अपेक्षा न की जाय तो वर्तमान में उसकी कोई आवष्यकता नहीं।
(4)
.............
भूतकाल उसे कहते है, जिसका चिन्तन वर्तमान काल में करने को वह भी भूतकाल बन जाता है। अतः भूतकाल का
प्रयोजन इस जीवन में कभी भी नहीं हो सकता, इसलिए इस भूतकाल को सदा के लिए भूल
जाया जाय। जो घटना बीत चुकी है, जैसे पिताजी की मृत्यु हो गई, किसी को सीने में गोली लग गई आदि उसे भूतकाल कहते है। ऐसे समय में पिताजी कैसे
मरे ? क्यों मरे आदि बातें पूछना या किसने
गोली मारी ? मारनेवाला कौन था ? किस जाति का था ? गोली किस तरह की है, आदि प्रश्न पर विचार करने से वर्तमान का जो क्षण है, वह सोचते-सोचते मुफ्त में बीत जायेगा। यहां तो पिताजी की अन्त्येष्टि क्रिया
में संलग्न होना चाहिए या जिसे गोली लगी है है उसके सीने से गोली निकाल कर दवा भर
देनी चाहिए आदि। इसलिए कहा गया है कि भूतकाल उसे कहते है जिसका चिन्तन वर्तमान में
करने से वर्तमान भी भूत हो जाता है। इसलिए भूतकाल को सदा के लिए भूल जाया जाय।
अब चलें भविष्यत्काल पर।
(ख)
भविष्यत्काल -
(1)
.............
भविष्यत्काल
उसे कहते है, जो वर्तमानकाल में न हो। जैसे मेरी परीक्षाफल प्रकाशित नहीं हुई है, मेरे पिता की मृत्यु नहीं हुई है, मेरी शादी नहीं हुई है, मै मर नहीं गया हूं, आदि।
(2)
.............
भविष्यत्काल
उसे कहते है जो आनेवाला हो। जैसे, परीक्षाफल प्रकाशित होनेवाला है, पिताजी को सभी डाक्टर जवाब दे चुके है, मेरी शादी होनेवाली है, मैं बहुत जल्द मरनेवाला हूं। आदि ये सब बातें निकट भविष्य में होनेवाले समझ
में आते है, उसे भविष्यत्काल कहते है।
(3)
.............
भविष्य काल उसे
कहते है जो वर्तमान से होकर गुजरेगी। बहुत से लोग भविष्य की चिन्ता लिया करते है। वे
सोचते है कि ऐसा होगा, वैसा होगा, ऐसा होगा तो क्या होगा,
वैसा नहीं होगा तो क्या होगा आदि। किन्तु जो नहीं होगा यदि
उस पर विचार किया होगा या उसके प्रति आस्था रखी गई तो उसे भविष्यत्काल न कहकर
कल्पना कहेंगे, जिसका कालचक्र में कोई स्थान नहीं है। अर्थात् भविष्य में जो भी होने वाला
होगा वह वर्तमान से होकर गुजरेगा ही। जब उसे वर्तमान से होकर गुजरना ही है तो
चिन्तन किस बात का ?
(4)
.............
भविष्यत्काल उसे कहते है जिसका वर्तमान
से कोई मतलब न हो। जो भी घटनाएं गुजर चुकी होती है या गुजर रही होती है हमलोग उसी
के अनुरूप भविष्य की परिकल्पना करते है। किन्तु भविष्य की प्रत्येक घटना नये रंग
और नये साजोबाज के साथ प्रस्तुत होती है। फिर भी भ्रमवश लोग वर्तमान काल के कार्य
को भविष्य की उस घटना से जोड़कर संतोष प्राप्त करने की चेष्टा करते है। वैसे भविष्य
में मेरा लड़का होगा, वह पढ़ लिख कर डाक्टर बनेगा, मुझको मानेगा आदि बातों का वर्तमान
कार्य से कभी भी मतलब नहीं देखा गया है। किन्तु ज्यों ही पुत्र उसके अनुरूप होता
है उस समय (वर्तमान में) उस समय के (भूत) भविष्यत (अब वर्तमान) के अनुमानों का
वर्तमान (भूत का भविष्यत्) के साथ सम्बन्ध बनाकर वर्तमान और भविष्यत् जो भूतकाल का
है, घसीटते है और इस प्रकार तीनों कालों की खिचड़ी पकाकर कहते है कि भविष्यतकाल का
वर्तमानकाल से सम्बन्ध है,
जबकि एक काल में एक ही काल के गुरुत्त्व की बात को स्वीकार
करना युक्तिसंगत है।
(5)
.............
भविष्यतकाल उसे
कहते है जिसकी अपेक्षा यदि न की जाय तो वर्तमान काल में उसका कोई प्रयोजन ही न हो।
अतः जो बिना मतलब और प्रयोजन हीन हो तथा जिस पर चिन्तन भी किया जाय तो वह वर्तमान
भी भूत बन जाता है, उसे सदा के लिए भूल जाना चाहिए। जो भविष्यतकाल में होने वाली घटनाएं है उनका
वर्तमानकाल से कोई सम्बन्ध नहीं है उनकी वर्तमानकाल में कोई आवश्यकता भी नहीं है।
यदि उन पर बिना प्रयोजन के वर्तमान समय में चिन्तन किया जाय तो वह वर्तमान समय भूत
हो जायेगा। ऐसे अनावश्यक और प्रयोजनहीन भविष्यतकाल की घटना जिसके सम्बन्ध में हम
जानते है कि जो होनेवाला है सो होगा ही और जो नहीं होने वाला होगा सो नहीं होगा, तो व्यर्थ में चिन्तन करके वर्तमान समय को भूत बनाकर क्यों नष्ट करें। अतः ऐसे
निरर्थक भविष्यतकाल को सदा के लिए भूल जाना ही श्रेयस्कर है।
अब रहा वर्तमान
काल।
(ग) वर्तमान
काल -
जब वर्तमान समय पर विचार करते है तो यह
पाते है कि भूत और भविष्यत् दोनों के विरोधी गुण होने के कारण वर्तमान का अस्तित्व
दिख रहा था। वास्तव में इस (वर्तमान) का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यदि उत्पति और
संहार न हो तो स्थिति कैसे सम्भव है ? यह तो परस्पर सापेक्ष है। यदि
दोनों को सापेक्ष मानकर वर्तमान को छोड़ दिया जाय तो बिना वर्तमान के भविष्यत् भूत
में कैसे परिणत होगा ? वर्तमान का तात्पर्य तात्कालिक वर्तमान से है और जो तात्कालिक वर्तमान है, उसमें कुछ कहना ही नहीं बनता। इस बात को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए
घड़ी का उदाहरण प्रस्तुत है।
विज्ञान ने एक सेकेण्ड के 10 हजार भाग तक को प्रमाणित किया है। वैसा ही सेकेण्ड की सुई से युक्त घड़ी आपके
समक्ष रख दी गई है। अब आप से पूछा जाता है कि घड़ी में कितना बजा है ? आप घड़ी के सभी सूइयों को ठीक बारह पर आते ही देखकर कह देंगे कि ‘बारह बजा है‘ किन्तु ऐसा कहना गलत होगा। जब आप घड़ी में बारह बजा हुआ देखेंगे और कहने लगेंगे
तो बारह बजकर 1/1000 सेकेण्ड बीत चुका होगा। इस प्रकार आप भूतकाल के समय को बताने वाले हो
जायेंगे। 1/1000 सेकेण्ड गुजर ही जायेगा ऐसा जानकर तो 1/1000 सेकेण्ड पूर्व ही ‘बारह बजा है‘ ऐसा कहेंगे तो आप 1/1000 सेकेण्ड पूर्व ही समय बताने वाले अर्थात भविष्यत्काल के समय को बताने वाले हो
जायेंगे। आप का यह कहना भी भविष्यतकाल में गिना जायेगा। अर्थात कोई भी व्यक्ति
वर्तमान समय को नहीं बता सकता। जब बीता हुआ ही कहना है या गुजरने वाला ही कहना है
तो हजारों वर्ष का फरक करें या 1/1000 सेकेण्ड का, भूत और भविष्यत् की नजर में तो यह समान बात है। बीता हुआ समय चाहे वह कल का हो
या पचास वर्ष पहले का, कोई फरक की बात नहीं। यही बात आनेवाले समय पर भी लागू होती है।
इन सब बातों से
यह समझा जा सकता है कि भूत,
वर्तमान तथा भविष्यत् का कोई अस्तित्व नहीं है। जब भूत
वर्तमान और भविष्यत् ही नहीं तो उससे सम्बन्धित नगर कैसा ? जब नगर ही नहीं तो नगर के लोग कैसे ? जब लोग ही नहीं तो प्रष्नकर्ता कौन, उत्तर देनेवाला कौन और प्रश्न कैसा कि, ‘आप कौन है ?‘ जब प्रश्न ही नहीं तो उत्तर की तैयारी कैसी ? फिर इन सब बातों पर
विचार क्यों ?
- ॐ तत् सत्।
Comments
Post a Comment