स्वप्न और जागरण - संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का मत
|| ॐ तत्सत् ||
सत्यमवद् ! धर्मं चर !
सत्यमेवजयते ! धर्ममेव जयते !
‘भगवत कृपा ही केवलम्’
“असतोमासद्गमय ! तमसोमा ज्योर्तिगमय !! मृत्योर्मा·मृतगमय !!!”
स्वप्न और जागरण
पर
सदानन्द-मत
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक
बन्धुओं ! ‘स्वप्न और जागरण’ तथा ‘वास्तविक सत्य’ के प्रति आप पाठक एवम् श्रोता
बन्धुओं के समक्ष भगवत् कृपा विशेष रूप से प्राप्त सदानन्द भी एक मत रख रहा है, ‘वास्तविक
सत्य’ हेतु इसकी उपयोगिता भी आप स्वयं अनुभव
करें और बोधित होते हुए सत्य को जानें | वास्तविक सत्य इतना आसान नहीं होता की जो
चाहे वही जना दे और जैसे चाहा जाए वैसे जान लिया जाए | भगवत् कृपा से सदानन्द तो
इस बात पर जितना जोर दिया जा सकता है उस से भी अधिक जोर देता हुआ यह अकाट्य निश्चयात्मक मत प्रस्तुत कर रहा है की “सृष्टि में यदि कोई गूढ़तर बात है तो उसमे सब से गूढतम् यह ‘वास्तविक सत्य’ जानना और पाना ही है |” संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जब भी वास्तविक सत्य की चर्चा भगवत
कृपा से करना चाहता है तो दो बातें प्रमुख़तया इसके सामने खड़ी हो जाती है -- पहली
बात यह है कि ‘वास्तविक सत्य’ की वास्तविक जानकारी देने पर पाठक बन्धुगण को “संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द एक परम अहंकारी लगने लगता है’’ और
दूसरी बात यह है की “भगवद्धर्म
या सत्य धर्म का संस्थापक एवं संरक्षक होने
के कारण यह सत्य से हट कर कुछ लिख ही नहीं सकता है, कारण कि “सदानन्द शरीर तो भगवान् के ही कार्य सम्पादन
हेतु भगवान द्वारा ही प्रयुक्त एक
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यन्त्रवत्
मानव आकृति मात्र है, जो सत्य धर्म हेतु ही
समर्पित है |” यह
आद्योपांत सत्य बात है कि सदानन्द नाम रूप वाला यंत्रवत् मानव आकृति सत्य ही कहने
बोलने व लिखने हेतु मजबूर है इसी लिए भगवत् कृपा विशेष के सहारे यह सदानन्द यन्त्रवत्
मानव आकृति सत्य ही एक मात्र सत्य ही लिख रहा है | इसे जानना-देखना-समझना तथा आपके
स्वभाव के अनुकूल या प्रतिकूल जैसा लगे वैसा ब्यवहार लेना-देना आप पाठक एवं श्रोता
बन्धुओंपर आधारित है | यह भी एक वास्तविक सत्य का ही अंश होने के कारण सत्य ही है की
आप के मानने या नहीं मानने से वास्तव में वास्तविक सत्य पर कोई असर या प्रभाव पड़ने
को नहीं है, यदि असर या प्रभाव पड़ने को है तो वह एक मात्र आपके जीवन पर ही
है | इस लिए भगवान् के तरफ से ही, भगवत् कृपा बिशेष के सहारे ही सदानन्द नाम
रूप वाला यन्त्रवत् मानव आकृति जो कुछ वास्तविक सत्य को जाना और पाया है तथा भगवत
कृपा विशेष से ही जहां तक समझ सका है, आप पाठक एवं श्रोता बन्धुओं के समक्ष
प्रस्तुत कर रहा है | इसे जानना समझना तथा अपने जीवन को वास्तविक सत्य हेतु
समर्पित होता हुआ सत्य पर ही कायम रहना आप की बात
है |
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बंधुओं ! इस शीर्षक के अंतर्गत हमें तथा आप
सभी बन्धुओं
को मुख्यतः तीन बातों विषय में जानकारी करनी है जिसमे
से पहली बात ‘स्वप्न’, और दूसरी बात है ‘जागरण’, और तीसरी बात है ‘वास्तविक सत्य’
| इन तीन बातों से सम्बंधित हम आप सभी को
अच्छी सूझ-बूझ के साथ ही लिखते-पढ़ते तथा
समझते हुये उस पर चलनें, उस पर दृढ़तापूर्वक कायम रहने चाहिये, ताकि यथार्थतः
उपलब्धि उपलब्ध हो सके |
स्वप्न
सद्भावी पाठक बंधुओं ! सर्व
प्रथम हमें यह देखना होगा कि -- स्वप्न वास्तव में क्या है ? स्वप्न एक ऐसा शब्द
है जो प्रायः समस्त मानव से ही सम्बन्धित है, साथ ही स्वप्न की जानकारी के सम्बन्ध
में अनेकानेक विद्वत् एवं अपने क्षमतानुसार जानकार व्यक्तिओं–बन्धुओं
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के अनेकानेक मत या विचार समाज में भरे पड़े हैं परन्तु भगवत कृपा से
प्राप्त इस मत को भी ज़रा जानने, देखने एवं समझने की कोशिश करें | सदानन्द नाम रूप
यंत्रवत मानव आकृति द्वारा जो कुछ भी आप के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है इसमें संदेह नहीं कि यह बिलकुल ही भगवत् कृपा विशेष
पर ही आधारित है , उससे पृथक् कुछ भी नहीं |
स्वप्न की परिभाषा :
“पुनर्वापसी की अवस्था में रहता हुआ ‘जीव’ का शरीर से बाहर निकल कर
क्रियाशील रूप में गतिशील होना ही स्वप्न है |” इसमें संदेह नहीं कि स्वप्न पर अनेकानेक मत या विचार समाज में
प्रचलित हैं, जैसे स्वप्न को कोरी कल्पना ही मान बैठा है, तो कोई उसे बुद्धि का
विवर्त ही कहा है, कोई इसे दैनिक गतिविधियों पर आधारित एक मिथ्याभाष की बात कहते
हैं तो कोई इसे मानसिक तरंग ही मानता है आदि–आदि | संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द द्वारा भगवत कृपा से यह भी
कहा जा रहा है और अति प्रभावी रूप में कहा जा रहा है की “जीव” भी वास्तव में क्या है, यह
भगवान् के सिवाय यथार्तत: संसार में किसी को भी जानकारी नहीं है और न हीं रही है
|
हालांकि आत्मज्योतिरूप आत्मा या दिव्य ज्योति रूप आत्मा या दिव्य ज्योति रूप ईश्वर
या ब्रह्म ज्योति रूप ब्रह्म की जानकारी ध्यान आदि योग या अध्यात्मिक साधना द्वारा
अनुभूतिपरक जानकारी रही रही है, वर्तमान् में भी है, परन्तु ‘जीव’ की यथार्थत: जानकारी
उन योगी – यतिओं, ऋषि – महर्षिओं तथा अध्यात्मवेत्ताओं को भी नहीं रही है | मिथ्याज्ञानाभिमानावश
आध्यात्मिक – संत महात्मागण, जीव – आत्मा और परमात्मा की यथार्थत: जानकारी की
घोषणाएँ तो करते रहे हैं तथा कर भी रहे हैं
परन्तु यह “संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द की सभी के साथ ही स्पस्ट:
चुनौती है कि किसी भी योगी या अध्यात्मिक संत- महात्मा को जीव और परमात्मा की
जानकारी नहीं है |” हाँ, आत्मा की कुछ रही है
और आज भी है |
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सद्भावी सत्यान्वेषी मानव बन्धुओं ! परब्रह्म या परमेश्वर या खुदा–गाड या
भगवान या परमात्मा और जीव या रूह या सेल्फ दोनों हो बिम्ब और प्रतिबिम्ब ही क्रमशः
होते हैं, इसमें संदेह की गुंजाइश ही नहीं है कि परमात्मा-खुदा-गाड यदि विम्ब है
तो जीव-रूह-सेल्फ, उस का ही प्रति विम्ब है | यही कारण परमात्मा-खुदा-गाड के सिवाय
जीव-रूह-सेल्फ को कोई भी देवी-देवता या ऋषि–महर्षि या प्राफेट-पैगम्बर या संत
महात्मा आदि नहीं जानता है | क्योंकि जो परमात्मा-खुदा-गाड को जानेगा, एक मात्र
वही ही जीव-रूह-सेल्फ को भी जानेगा, जो परमात्मा-खुदा-गाड को समझेगा, वही ही जीव-रूह-सेल्फ
को समझेगा और यह अकाट्य सत्य है जिसे वेद पुराण, रामायण-गीता, बाइबिल कुरआन आदि
सभी सदग्रंथ ही एक स्वर से बता रहे हैं की परमात्मा-खुदा-गाड को उस
परमात्मा-खुदा-गाड के सिवाय अन्य कोई भी नहीं जानता | हाँ, परमात्मा-खुदा-गाड ही
स्वयं ही जिसे जनाना–दर्शाना–मिलना-मिलाना चाहे, मात्र वह ही उसे जान देख पहचान करते
हुए अनन्य भगवद्-भाव, अनन्य भगवद् सेवा और अनन्य भगवद् प्रेम हेतु भगवद् शरणागत भी
हो और रह पाता है तथा भगवान-खुदा-गाड भी उसी को अपना असल ‘तत्वरूप’ जनाना–दर्शाना
एवं मिलना-मिलाना भी चाहता है जिसे श्रद्धा एवं बिश्वास के साथ निष्कपटतापूर्वक
अनन्य भाव-भक्ति में रहते हुये उसे जानने देखने पहचानने तथा अनन्य भाव से ही
सर्वतोभावेन भगवद् शरणागत होने हेतु उत्कट जिज्ञासा हो, जो अपने को यह मान
बैठा हो कि भगवद् कृपा के वगैर हमारा कल्याण यानी मुक्ति और अमरता रूप “अद्वैत तत्त्व-बोध’’ हो ही नहीं सकता | बंधुओं ! जीव-रूह–सेल्फ परमात्मा-खुदा-गाड
का ही एक मात्र प्रतिविम्बवत् रूप होता है परन्तु साथ ही साथ इसकी एक यह भी पृथक
एवं महान विशेषता है कि जीव जिस शरीर के माध्यम से क्रियाशील होता है, सामान्यतः
तो वह उसी स्थूल रूप का ही होता है, उसी जैसा ही
रहता,
परन्तु जैसे ही वह भगवत् प्राप्ति करता है वैसे वह भगवद् रूप का ही भगवद्
प्रतिबम्ब ही है तो ‘वास्तव में
रहता हुआ
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भी व्यवहारत: वह स्थूलवत् ही होता
रहता है |’ यहाँ पर यह अवश्य ही बता देना उचित लग रहा है की दुनियां के किसी भी
सदग्रंथ मात्र से जीव-आत्मा और परमात्मा अथवा रूह-नूर और अल्लाहत·आला अथवा सेल्फ-सोल एंड गाड की
जानकारी दर्शन एवं बोध कदापि नहीं हो सकती; हो ही नहीं सकती, भले लाखों-करोड़ों
वर्षों तक ही अध्ययन मात्र क्यों न करते रहा जाय | यह अनिवार्यतः सत्य है कि जीव
वाला विचारक (स्वाध्यायी) जीवाभास मात्र करा सकता है; आत्मा-नूर-सोल वाला आध्यात्मिक
संत महात्मा, पैगम्बर, प्राफेट ही आत्मा-नूर-सोल को जना दिखा तथा संपर्क करा सकता
है और एक मात्र परमात्मा-खुदा-गाड का पूर्णावतार ही शरीर-जीव-आत्मा और परमात्मा अथवा
जिस्म-रूह-नूर और अल्लाहतआला, अथवा बॉडी-सेल्फ-सोल एंड गाड को जना-दर्शा-बात-चीत
करते-कराते हुए अपने शरणागत कर-करवा सकता है | पूर्णावतार ही एक मात्र “अशेष
ज्ञान” वाला
होता है शेष कोई नहीं | हम आप सभी कोई जो परमात्मा-खुदा-गाड को जानेगा-वोध प्राप्त
करेगा यदि वह चाहता है और अनन्य भाव से भगवत् शराणागत् रहता है, तो वह भगवतमय सत्पुरुष
भी अपने सद्गुरु रूप भगवदाअवतार से सारुप्यता प्राप्त कर सकता है | “ जीव
यदि एक परमाणु है तो परमात्मा एक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड !” यह उदाहरण ही जीव और परमात्मा के सम्बन्ध में रखा जा
सकता है | हालांकि यह भी यथार्थत: तो ठीक नहीं ही है, क्योंकि परमात्मा तो एकमात्र
अतुलनीय ही होता है, परन्तु समझने-समझाने हेतु उदाहरण एवं तुलना विशेष सहयोगी होता है, इसीलिए क्षमता
अनुसार तुलनात्मक जानकारी दे दी जाती है | यदि इस पर कोई दूसरा कोई समीपी उदाहरण
जानना चाहे तो जल-पात्र में दिखाई पड़ने वाला सूर्य-प्रतिबिम्ब यदि जीव कहा जाय तो
सूर्य को परमात्मा कहना होगा | अंततः परमात्मा अतुलनीय ही यथार्थत: जँचता है क्यों की सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी तो उसी से उत्पन्न, उसी द्वारा संचालित एवं अंततः
उसी में विलय हो जाता है, फिर उसकी तुलना किस चीज से और कैसे दी जा सकती है अर्थात
नहीं दी जा सकती है, कदापि उसकी तुलना नहीं है, वह अतुलनीय है | अत: यही कहा जाय
तो
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यथार्थ है की “परमात्मा
अंशी और जीव उसका एक इकाई रूप प्रतिबिम्बवत्
अंश मात्र तथा परमात्मा और जीव के मध्य परमात्मा से जीव का संपर्क बनाए रखने वाली
आत्म-ज्योति रूपा शक्ति ही आत्मा है” यही वास्तविक सत्य बात है |
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बंधुओं ! आप से
यथार्थता के नाते एक बात ज़रूर बताना
चाहूँगा कि आप यदि वास्तव में ‘वास्तविक सत्य’ को जानना चाहते हैं तो इतना तो आप
को सदा ही याद रखना चाहिए कि अपने गुरुओं एवं सद्गुरूओं से बड़े विनीत, श्रद्धालु,
जिज्ञासु, एवं निष्कपटता पूर्वक सेवा भाव से जीव-आत्मा और परमात्मा या रूह-नूर और
अल्लाहतआला या सेल्फ-सोल–गाड को शरीर से पृथक्-पृथक्
जानने (अनुभूतिपरक), साक्षात्कार करने और बोध
प्राप्त करते हुए पृथक्-पृथक् रूप में
तीनों को ही जाने-देखें तथा अनुभव एवं बोध प्राप्त करें | जो गुरु एवं सद्गुरु
तीनों को पृथक्-पृथक् रूप में जीव-आत्मा-परमात्मा को नहीं जानाता-दर्शाता एवं
पहचान कराता है वह कदापि सद्गुरु नहीं हो सकता | वह सद्गुरु का नकली चोला पहनकर
पाखण्ड एवं धूर्तता करता है | पतन को जाता और ले जाता है |
स्वप्नावस्था:
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बंधुओं ! मनुष्य
जब सामान्यतः शयन करता है या सोता है तो शरीरस्थ जीव पुनर्वापसी की अवस्था में
रहता हुआ क्रियाशील रूप में गतिशील होता है तो उसके अंतर्गत होता यह है कि मनुष्य
की स्थूल शरीर तो शयन स्थल पर ही मौजूद रहती है परन्तु स्वप्न द्रष्टा को यह
दिखलाई देता है कि अमुक कार्य हेतु अमुक स्थान पर अमुक-अमुक Vyaव्यक्तिओं के साथ बात
एवं कार्य में लगें हैं | स्वप्न द्रष्टा को यह नहीं महसूस होता है कि हम स्वप्न
में वार्तादि कार्य कर रहे हैं | वह सर्वदा यही समझता है की हम जगे है तथा हमारे
जागरण में ही ये बातें या कार्य हो रहे हैं | हम जागरण में ही अपने दोस्त-मित्र,
हित-नाथ, कुटुम्ब-परिवार आदि के साथ-साथ क्रियाशील हो रहे है | अर्थात् स्वप्न
द्रष्टा की स्वाप्निक क्रियाकलाप जाग्रत जैसा ही बिलकुल भाषता है | सोने के थोड़े
समय एक-आध घंटा में ही स्वप्नावस्था में कई-कई यानी अनेकानेक वर्ष
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का समय गुजरता हुआ दिखाई देता है, उस
समय यह याद भी नहीं कि हमारी यह पूरी नीद ही लगभग एक-आध घंटा की ही है | इस प्रकार
ऐसा देखा जाता है कि स्वप्न द्रष्टा स्वप्नावस्था में जागृति अवस्था जैसा ही अपने
को पाता है | कभी-कभी स्वप्नावस्था का स्पष्टत: प्रभाव भी शरीर पर भी स्पष्टत:
पड़ते हुए दिखाई पड़ता है, जैसे स्वप्न में रोना, स्वप्न में ही हंसना, स्वप्न में ही
तेज़ बोलना, स्वप्न में ही उठ कर दौडनें लगना, स्त्री प्रसंग में वीर्यपात होना,
पेशाब हो जाना आदि-आदि स्पष्टत: जागने के पश्चात् जगनेवालोँ द्वारा देखा जाता है |
स्वप्नावस्था अवस्था में कभी-कभी
अभूतपूर्ब सुख-भोग तो कभी-कभी अपार कष्ट-भोग भी मिल जाया करता है | स्वप्नावस्था की
क्रियाशीलता एवं गतिशीलता की कोई बात अथवा बस्तु जगने के पश्चात् प्रमाणिक भले ही
न मिले फिर भी स्वप्न को निरा झूठ यानी बिलकुल ही असत्य मान लेना अपनी ना जानकारी
एवं ना समझदारी का ही सूचक एवं परिचायक है क्यों कि स्वप्न से भविष्य के गति-विधि
का भी पूर्वाभाष होता हुआ भी प्रायः दिखाई देता है | स्वप्न का प्रभाव भी स्वप्न
द्रष्टा पर कभी-कभी प्रभावी रूप से प्रभाव जमा लेता है, जैसे “जनक” |
स्वप्न कोरा झूठ ही नहीं होता है, सदानन्द के मत में स्वप्न बिलकुल ही झूठा हो ऐसी
बात नहीं है |” किसी
भी बात पर जाने-अनजाने दुनिया वाले मनमाना निर्णय दिए बिना नहीं मानते, जबकि
यथार्थत: यह है कि किसी भी बात या विषय-वस्तु को वास्तव में यथार्थत: जाने पहचाने
बगैर निर्णय नहीं लेना-देना चाहिए, ऐसा कार्य (निर्णय) कदापि नहीं करना चाहिए | दुनिया
में किसी बात या विषय-वस्तु की ना जानकारी मूर्खता नहीं है बल्कि नहीं जानकारी के
बावजूद भी जानकाrर बनना महा मूर्खता है | कोई ज़रूरी नहीं कि दुनियां में सभी लोग
सब कुछ जाने ही, परन्तु यह सब को ज़रूरी है, की नहीं जानते हुए जानकार बनने की
कोशिश न करें क्यों की इससे दुहरी क्षति होती है | एक तो सर्बत्र अपमानित होना
पड़ता है और दूसरे जानने का मौक़ा नहीं मिलता, बेइज्जती मालूम पड़ने लगती है |
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सद्भावी
सत्यान्वेषी पाठक बंधुओं ! स्वप्नावस्था जीव का शरीर से बाहर निकलनेकी गति-विधि में
क्रियाशील रूप में भ्रमण करना पुनः भ्रमण के पश्चात् शरीर में वापस लौट आना, इस
शरीर से बाहर निकलने तथा पुनः वापस आ जाने के मध्य जो स्थूल शरीर से रहित तथा
मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार तथा सूक्ष्म रुपमे समस्त इन्द्रियों से युक्त सूक्ष्म आकृति
रूप सूक्ष्म शरीर या जीव का जो क्रिया कलाप है, ये सभी क्रिया-कलाप ही संयुक्त रूप
में स्वप्न अवस्था कहलायेगा | यह बात भी सही ही है कि स्थूल शरीर से पृथक सूक्ष्म शरीर रूप जीव के
क्रिया-कलापों में कोई तारतम्यता एवं ठोस प्रमाण नहीं होता, जिसके आधार पर (
स्वप्नावस्था ) को लोग झूठा आदि मानना व कहना-कहलाना शुरु कर देते है, जब की
स्वप्नावस्था के पश्चात् जागृति अवस्था में भी स्वप्नावस्था के अंतर्गत होनेवाली
समस्त घटनाओं की स्मृति प्रायः बनी रहती है, कुछ विस्मृति भी होती रहती है, परन्तु
कभी-कभी तो ऐसी-ऐसी घटनाएँ दिखायी देती है, जो बिलकुल ही भावी घटनाओं की सूचना एवं
पुर्वाभास के रूप में प्रभावी रूप में हो जाया करती है तथा कभी-कभी तो ऐसी-ऐसी
प्रभावी सुखद या दुखद घटनाओं का आभास होता है कि उसकी स्मृति जीवन के अनेकानेक
वर्षों तक बनी रहती है | इतना ही नहीं, स्वप्न विचारक अथवा अतीन्द्रिय क्षमतावाले कुछ
सिद्ध पुरुष तो स्वप्न विचार के माध्यम से ही व्यक्तिगत, सामाजिक एवं सांसारिक
घटनाओं के घटने एवं होने के पूर्व ही इतनी सटीक भविष्यवाणियाँ कर दिया करते हैं कि
लग रहा है भविष्य में घटित होनेवाली घटनाएँ उसी भविष्यवक्ता की पूर्व नियोजित
घटनाएँ हैं | स्वप्न सिद्धि के आधार पर ही यूशुफ अली (हज़रत याकूब के पुत्र) मिश्र
के बादशाह के प्रधान अधिकारी स्वप्न विचार से भविष्य कथन पर ही कारा-बंदी से कारा
मुक्त बनाए गए थे | आज भी अनेकानेक ऐसे स्वप्न सिद्ध अतीन्द्रिय क्षमता वाले हैं,
जो स्वप्न विचार के आधार पर ही भविष्यवाणी करते हुए विश्वस्तरीय भविष्यवक्ता की
ख्याति अर्जित कर रहे है | जैसे इज्रायल निवासी प्रो. हरार, जो दक्षिण अफ्रिका और
यूरोप में जो स्वप्ना-
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वस्था के माध्यमसे ही भविष्यवाणी कर
के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर रहे हैं | प्रो. हरार की वाणी में भी तथा आये दिन
मानवों द्वारा भी सुनने को मिला करता है कि प्रातः कालीन देखे गए स्वप्न का
भविष्य-प्रभाव अति शीघ्र यानी कुछ ही दिनों में घटित हो जाया करता है, मध्य रात्री
के स्वप्न एक-आध वर्ष के पश्चात् भी हुआ करती है परंतु रात्री के प्रथम प्रहार में
देखे गए स्वप्न अति दूरगामी होते है जैसे १0-१५ वर्ष पश्चाद भी होते हुए दिखाई
देते हैं | इन घटनाओं के आधार पर भी “स्वप्न को न तो कोरी कल्पना ही कहा
जा सकता है और न ही स्वप्न को असत्य ही करार दिया जा सकता है”, हाँ, ना जानकारों एवं ना
समझदारों की दृष्टि में तो सारी की सारी बातें ही, यहाँ तक कि भगवान् भी कुछ नहीं
होता है जैसे कि उल्लू पक्षी, जिसको दिन में कभी दीखाई ही नहीं देता, उसके लिए तो सूर्य
ही नहीं होता है, सूर्य ही उसके लिए झूठा है, तो नाजानकार एवं ना समझदार उल्लुओं
के कथन पर की “स्वप्न
झूठा ही होता है, मानना ही झूठा है या ‘सदानन्द’ के ‘मत’ से -- स्वप्न तो जागरण
की अपेक्षा अत्यधिक सत्य एवं प्रभावी रूप में जीव का स्वच्छन्द क्रिया-कलाप हैjojo जो जागरण पर भी प्रभावी रहता
है, साथ ही भावी घटनाओं का पूर्वाभास भी यह सनातन, क्रिश्चियन, बौद्ध, इस्लाम आदि
विश्व के प्रधान-प्रधान धर्म शाखाओं एवं प्रधान-सद्ग्रंथों द्वारा समर्थित एवं
प्रमाणित है |”
सद्भावी
सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! से अंततः “सदानन्द स्पष्ट रूप से बता देना
चाहता है कि स्वप्न पूर्णत: झूठा नहीं होता |” यह सांसारिक नाजानकार एवं ना
समझदारों द्वारा प्रायः हर विषय में हर विषय पर ही बिना जाने-समझे ही मनमाना दिये
जानेवाले विचारों एवं मतों का ही प्रभाव है कि आज दुनियां अराजकता एवं आतंक के
अंतिम चरण के भी अन्तिम स्तर पर पहुँच चुकी है | अमेरिका जैसे विकशित एवं सम्पन्न
माने-जाने वाले देश में भी प्राय: प्रत्येक बीसवें मिनट में एक आत्महत्या अवश्य हो
जा रही है | अब इसी से आंकलन किया जा सकता है कि वर्तमान में विश्व आतंक एवं
अराजकता के किस दौर से गुजर रहा है, इतने बड़े
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विकशित एवं सम्पन्न देश में इतनी
आत्महत्याएं आखिरकार क्यों ? इसलिए कि जीवन के मूल आधार रूप सत्य-धर्म-न्याय–निति
के स्थान पर आज असत्य-अधर्म-अन्याय एवं अनीति का बोल-बाला तथा विश्व पर शैतान एवं शैतान
मंडली का शासन हो गया है | अब यहीं भिड़ंत है तथा निकट भविष्य में देखने को मिलेगा
कि असत्य पर सत्य, अधर्म पर धर्म, अन्याय पर न्याय, अनीति पर नीति पुनः जयवंत एवं
शासक होगा तथा शैतान व शैतान मंडली का सफाया और भगवान् का पूरे भूमंडल पर धर्म
प्रधान शासन होगा | बन्धुओं दुराचार से दूर रहें एवं सदाचारी बने |”
इस प्रकार समाज में फैले
भ्रामक विचारों एवं भ्रामक जानकारियों से बचते हुए अपने को सत्य-धर्म-न्याय-नीति
से जोड़ने तथा अपने जीवन को सत्यमय, धर्ममय, न्यायिक एवं नीतिपरक बनाते हुए इस
संसार में ‘निर्दोष-मुक्त जीवन पद्दति’ अथवा ‘दोष-रहित मुक्त जीवन
पद्दति’ को प्रभावी रूप में लागू करते-कराते हुए अमन-चैन का जीवन जीते हुए ‘भगवत-धाम’
(परम धाम) चलें |
जागरण:
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बंधुओं ! अबतक तो आप लोग स्वप्नावस्था पर जानकारी प्राप्त किये
| अब आइये अब देखा जाय कि जागरण क्या है ? जागरण का सामान्य अर्थ सोने से जागने का
है | परन्तु सोना और जागना वास्तव में है क्या चीज ? यह प्रश्न देखने में जितना ही
सामान्य लग रहा है, इसकी जानकारी यथार्थत: उतना ही गूढ़ एवं महत्वपूर्ण भी है | यह
बात स्वाभाविक एवं सत्य ही देखा जाता है की सोना और जागना प्रायः सभी प्राणी मात्र
ही जानते हैं परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं | सोना और जागना यह जीवन की प्रायः नित्य
ही सहज रूप से होने व गुजरनेवाली वाली दो अवस्थाएं हैं | ‘स्वप्न’ सोने के अंतर्गत
का क्रियाकलाप है तो ‘जागरण’ जागने के अंतर्गत का एक क्रिया-कलाप है | रात दिन की
तरह ही सोना और जागना भी है तथा रात और दिन का सम्बन्ध भी क्रमशः सोने और जागने
हेतु समझ में आ रहा है | रात सोना है
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दिन तो है जागना | रात सोने के लिए तथा सोने aका प्रतीक
होती है तो दिन जागने के लिए तथा जागने का प्रतीक ही होता है | रात और दिन दुनियां
का सोना और जागना है तो सोना और जागना जीव का एक शारीरिक स्तर पर क्रियाहीन और
क्रियाशील होने से है “सोना और जागना अति महत्वपूर्ण जानने योग्य बातें है |” सोना और जागना तो
महत्वपूर्ण बात है ही, परन्तु सोते हुए जागना और जागते हुए सोना, यह तो और ही
महत्वपूर्ण जानने योग्य बात है | इसलिए इस विषय वस्तु और बात को जानने के लिये ही
शांतिमय ढंग से काफी सूझ-बूझ के साथ ही पठन-पाठन एवं मनन-चिन्तन किया जाएगा, तब ही
यह बात ठीक-ठीक सही-सही यथार्थ रूप में जानने-समझने में आयेगी, अन्यथा पढ़ने से कोई
लाभ नहीं |
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बंधुओं ! सोना और जागना प्राणी मात्र की
प्रायः नित्यशः सहज रूप में होने वाली दो प्रकाrर की क्रियाएं एवं गतिविधियाँ हैं इसलिए
अन्य प्राणी मात्र नहीं, तो कम से कम मानव बंधुओं को तो इसकी यथार्थत: जानकारी
प्राप्त करना होना व रहना ही चाहिए, या जानकारी होना चाहिए क्यों कि इसकी यथार्थत:
जानकारी के बगैर जीवन का लक्ष्य व कार्य नहीं जान सकते हैं और जीवन का लक्ष्य व
कार्य जाने बगैर कोई यथार्थ लाभ कैसे उपलब्ध कर सकता है ? नहीं कर सकता, कदापि
नहीं कर सकता है |
सोने और जगाने की परिभाषा :
“सदानन्द तो भगवत् कृपा से यही बताता है कि जीव
की पुनर्वापसी की अवस्था में शरीर से बाहर निकलना या शरीर से बाहर होना ही सोना है
तथा निकले हुए जीव का शरीर में प्रवेश करना या प्रवेश होना ही जागाना है |”
शरीर में जीव का कार्य ही शरीर का कार्य भाषता है | इसप्रकार सोना और जागना दोनों
ही वास्तव में जीव द्वारा किया गया कार्य ही है – फिर भी “दुनियां
तो एक मात्र विरोधाभास प्रधान–क्रिया-कलाप एवं गतिविधि है |”
दूसरे शब्दों में” – दुनियां
वह माया जाल है जिसमें चेतन की क्रियाशीलता जड़ाभास होता है |
(16)
आप पाठक बन्धुओं को यहाँ यह बात भी जान
लेनी चाहिए कि शरीर ‘मात्र मात्र एक’ भगवत् निर्देशन में प्रकृति निर्मित आकृति है
जिसमें मानव आकृति ही एक सर्वोत्कृष्ट आकृति है, जो पूरे ब्रह्माण्ड की ही एक लघु
रूप में परिपूर्णतया रचना है | मानव ब्रह्मांडीय सम्पूर्ण साधन-साधनाओं एवं विधानों
से भरपूर एक मात्र यंत्रवत् मानव आकृति मात्र है जो जड़ होता है जिसको संसार में
चलाने हेतु भगवान् नें जीव को सुपुर्द किया तथा आत्म-शक्ति या इश्वरीय-शक्ति या
ब्रह्मा शक्ति के माध्यम से जीव की
पुष्टि-तुष्टि भी परमात्मा, खुदा या गाड ही करता-कराता रहता है, परन्तु इस यन्त्र
को जीव जब मनमाना यानी आत्मा और परमात्मा के विधि-विधानों से दूर हट कर चलना शुरू
कर देता है, तब ही इसे अभाव एवं असुरक्षा से ग्रसित होना पड़ता है, जिससे बजाए यह
अपना सुधार के मनमाना होने के कारण संहार का भागी बनता है |
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं
! शरीर तो क्रियाहीन एक यंत्रवत् आकृति होती है, जिसमे मानव शरीर ब्रह्मांडीय
सर्व-साधन साधना एवं विधानों से भरपूर एक जड़वत् मानव आकृति है जो जीव द्वारा
चालित, आत्मा द्वारा परिचालित एवं परमात्मा द्वारा संचालित सृष्टि की एक
सर्वोत्कृष्ट मशीन है | इस प्रकार जीवका क्रियाशील रूप में शरीर में स्थित होना व
रहना ही जागरण है |
जागृति अवस्था:
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बंधुओं ! भगवत कृपा विशेष से प्राप्त जानकारी के आधार पर
संतज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द का ‘यह मत देखें’- “संसार जीव का शारीरिक कर्म एवं भोग क्षेत्र है | जिसमे
जीव को समुचित रूप से कर्म करते-भोगते हुए भगवत् प्राप्ति रूप मोक्ष हेतु ही मानव
शरीर मिला |” जीव
को कर्म करने एवं भोग भोगने भर के लिए ही यह मानव शरीर नहीं मिला था बल्कि जीव को
भगवत् प्राप्ति और मुक्ति अमरता के बोध रूपी जीवन के चरम और परम लक्ष की प्राप्ति
हेतु ही मिला था, न कि इसी मनुष्य शरीर में चिपकने, फंसने, या जकड़ने के
लिए | जीव को दुनियां या संसार में विशेष सावधानी के रूप में जागरुक रहने के लिए ‘सोने’ (सुसुप्ति)
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की व्यवस्था हुई कि जीव जड़ जगत में फूलने–फंसने न लगे
अर्थात् होने के माध्यम से जीव यह अनुभव करता हुआ जाने कि ‘यह संसार एक माया-महल
है’ जिसमे जीव दर्शक मात्र है | यह माया-महल भगवान्-खुदा-गाड का ही है और रहेगा भी
| इसमें जीव को लुभाना या फंसना नहीं चाहिए | यह मानव शरीर जो हम (जीव) को मिली
है, यह मात्र माया-महल को ही देखने मात्र के लिए ही मिली है, अपना बनाने-कहाने के
लिए नहीं | सोने पर थोड़ा भी सोने से पहले पांच मिनट तक यह मनन - चिंतन करें कि अब
हम क्या करने चल रहे हैं तथा जागते समय भी कमसे कम पांच मिनट तक यह अवश्य
मनन-चिंतन चाहिए कि अब तक (सोने) में हम क्या थे अब क्या हैं ? सोने में क्या कर
रहे थे अब क्या करना है ? यह प्रक्रिया प्रत्येक मानव को ही सफल जीवन जीने, अपने
अस्तित्व को समझने तथा लक्ष्यगामी बनाए रखने हेतु अनिवार्यत: नित्यशः नियमियत रूप
में अपनाना चाहिए | वास्तव में जीव यह आभास करें कि यह शरीर जड़वत् है किसी भी
कार्य का करता-भोक्ता नहीं है, यह मुर्दे के समान एक स्थान पर ही पड़ा रहता है जब
कि जीव इसको छोड़कर पुनर्वापसी की अवस्था में बाहर निकलता है तो यह मुर्दे के समान
ही एक स्थान पर, कर्महीन रूप में पड़ा रहता है, स्वांस भी इसका बंद हो जाता, यदि
जीव को वापस नहीं लौटना होता और सारा संसार ही शरीर के लिए कुछ नहीं रह जाता है |
जागरण में जो कुछ भी किया-कराया जाता है या रहता है उसकी यादगारी भी इस सोनेवाले
समय में नहीं रह पाती है | पुनः ध्यान दें कि सोने में हम-हमार, तू-तोहार या
मै-मेरा या तुम-तुम्हारा नाम के किसी भी विषय-वस्तु की स्मृति यानी यादगारी भी
नहीं रह जाती है, पुनः ज़रा सोचें की यह नित्य की प्रक्रिया या पद्दति है कि हम-हमार,
तू-तोहार, ताकि किसी भी विषय-वस्तु की स्मृति भी यानी यादगारी भी नहीं रहती, तो जो
यादगारी भर के लिए भी यह नहीं रह जाता उसी के लिए दिन-रात अथक परिश्रम करते हुए
अनेक
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प्रकार के कष्ट भोगते हुवे हम-हमार, तू-तोहार में लगे
रहेंगे, बांकी-वस्तु संसार छोड़ने पर कैसे अपनी रहेगी, यादगारी के लिए भी नहीं रह
पाएगी | याद भी नहीं रहेगी, ‘याद भी’ | क्यूँ भटकते हो इस दुनिया-जहांन में ? क्यूँ
फंसते हो माया विधान में ? यह नित्यशः होनेवाली क्रिया या पद्दति है परन्तु
सांसारिक मानव इसमें ऐसा फूल फंस गया है की उसे यह भी याद नहीं हो पाता कि शरीर
एवं संसाrर वह और उसका नहीं है यानी वह शरीर भी नहीं है तथा उसका संसार भी कुछ
नहीं है | रोज के सोने मात्र से इतना तो कम से कम समझ ही लेना चाहिए | परन्तु यह
शारीरिक एवं सांसारिक मानव इतना भी जानने-समझने की कोशिश नहीं कर रहा है कि रोज
इतना समय लेनेवाला यह सोना तथा रोज (नित्य) इतना समय एवं श्रम लेनेवाला यह जागना
आखिरकार वास्तव में क्या है ? किसलिए है ? तो जिस मनुष्य को सोना और जागना तक कि
जानकारी नहीं हो पाती तो और कोई जानकारी याथार्थतः कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती,
कदापि नहीं हो सकती है|
सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! यह अजीब
आश्चर्य की बात है कि जिस शरीर में कान, त्वचा, आँख, जिह्वा, नाक, हाथ-पैर, मुख,
लिंग, गुदा आदि समस्त इन्द्रियों के रहने का बाबजूद भी यह शरीर जीव से रहित रहने
पर कुछ नहीं कर सकती, कहीं नहीं चल सकती, कुछ नहीं खा-पी सकती, कुछ नहीं देख-सुन
सकती, कुछ भी कर- भोग नहीं सकती यानी सभी प्रकार के कर्मों एवं भोगों से रहित रहती
है | क्यों की शरीर में ‘अहं’ नाम (जीव) ही शरीर छोड़ कर कहीं बाहर स्वप्नावस्था
में गया है जिसका शरीर में वापस आकर प्रवेश करना मात्र ही सोने से जागना है | इसे
याद रखें कि ‘अहं’
रहित यह शरीर एक मुर्दा या मुर्दे के सामान रहती है, जब की ‘अहं’ नाम जीव के पास अपना कोई शारीरक
अंग व शरीर नहीं होता, फिर भी शरीर में प्रवेश करते ही शरीर के सभी अंगों से काम
करना शुरू करदेता है | यानी क्या ही अजीब आश्चर्य की बात है की जिस शरीर के पास सब
अंग है वह कुछ भी नहीं कर सकती है|
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कि जो शरीर कुछ नहीं करती, और कुछ नहीं भोगती, वही शरीर सब कुछ करती और सब
सुख-दुःख भोगती हुई दिखाई देती है तथा सब कुछ करनें वाला और सब दुःख-सुख भोगनेवाला
जीव को न तो कोई जानना और न देखना चाहता है, और न तो किसी को दिखाई देता है, जो
शरीर एक जड़वत् मुर्दे के सामान रोज (नित्य) ही सोने में पड़ी रहती हुई बेकार दिखाई
देती है वही शरीर जागरण में हम-हमार बनकर संसार में ‘हमार’ के चारों तरफ नाच रही
है तथा जो हम जीव शरीर छोड़ने पर भी क्रियाशील एवं गतिशील मात्र ही नहीं है बल्कि
अति तीव्रतम क्रियाशील एवं गतिशील रहते हुए स्वयम् को स्वप्न के रुपमें स्वप्न
द्रष्टा को दिखाई देता है उसे शरीर में आने पर जागने पर यही शरीर धारी शरीर वाला हम
हो कर हम जीव को भी दिनभर भूला रहता है, साथ ही जिस आत्मा से इस जीव का अस्तित्व
कायम है, उस आत्मा को भी भूल जाता है, परमात्मा को तो भूला ही है | इन बातों से तो
यह स्पष्ट हो ही जाना चाहिये कि यह संसार कितना विरोधाभासी है की वास्तव में चेतन
जीव-आत्मा के क्रिया-कलाप को जड़ शरीर से ही होता हुआ, देखता हुआ, जानता व मानता भी
है जब कि शरीर मात्र एक जडवत् यन्त्र मात्र ही है | यानी संसार में जो करता-भोक्ता
(जीव) है उसे न तो कोई जानना चाहता है और न तो जानता ही है | और जो शरीर कुछ भी
नहीं कर सकती और न भोग सकती है, उसी शरीर को करता व भोगता हुआ और मानता हुआ
सांसारिक मानव यही मिथ्याभास जीवन जीने का आदती यानी अभ्यासी बन गया है | अपने
चेतन जीव-आत्मा के अस्तित्व को भी भूल गया है | परमात्मा को तो भूला ही होता है |
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं
! आप से अंततः हम यह बता देना चाहेंगें कि जागरण की अपेक्षा स्वप्न अधिक एवं
प्रभावी सत्य होता है | क्यों कि स्वप्न को यदि आप झूठा कहेंगें तब तो यह संसार
झूठा से भी बदतर झूठा होगा, क्यों कि शारीरिक जीव की प्रधानतया दो ही अवस्थाएं
होती है | जो नित्यशः देखने में आती है -
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एक सोना और दूसरा
जागना | सोने के अंतर्गत स्वप्न आता है और जगनें में जागरण | स्वप्न जगने के बाद
प्रमाण रूप में ठीक रूप में न रहनें पर भी यादगारी यानी स्मृति रूप में तो प्रायः
रहती ही है परन्तु जागरण का तो कोई भी क्रिया-कलाप अथवा विषय-वस्तु सोनें में तो
ठोस रूप में नहीं ही रहता, यादगारी या स्मृति भी तो नहीं होती या रहती है तो,
प्रमाण के आधार पर देखा जाय तो स्वप्न की यादगारी या स्मृति जागरण में कायम रहनें
तथा जागरण की यादगारी या स्मृति सोने में समाप्त रहनें के कारण भी स्वप्न जागरण की
अपेक्षा अधिक सत्य होता है | इतना ही नहीं जागरण का प्रभाव सोनें वाली शरीर पर कुछ
भी नहीं पड़ता है, कुछ भी दिखाई नहीं देता है किन्तु स्वप्न का प्रभाव शरीर पर पड़ता
हुआ स्पष्टतः दिखाई देता है, जैसे हंसना-रोना, बच्चोंका पेशाब करना, वीर्यपात करना
आदि-आदि | इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वप्न जागरण से अत्यधिक प्रभावी भी है
अर्थात स्वप्न जागरण से अपेक्षतया अधिक सत्य एवं अत्यधिक प्रभावी होता है |
अतः सोना और जागना सूक्ष्म शरीर रूप
जीव (अहं या रूह या सेल्फ स्व) की ही शरीर के बाहर और शरीर के अंदर रहते हुए जीव
की ही दो अवस्थाएं हैं जैसे जीव की पुनर्वापसी की अवस्था में रहते हुए शरीर से
बहार निकल कर क्रियाशील रहना स्वप्नावस्था (सुषुप्ति अवस्था) है तथा जीव का ही
शरीर में प्रवेश करना या प्रवेश हो जाना ही जागना है | यही सोना और जागना है |
सोने के अंतर्गत होनें वाली स्वछन्द जीव
का क्रिया-कलापमय रूप ही स्वप्न और जीव का शरीर में शरीरमय क्रिया-कलाप ही जागरण
है |
अतः स्मृति-गुण-कर्म-प्रभाव आदि-आदि हर पहलुओं
से ही देखा जाय तो आप पाठक एवं श्रोता बन्धुओं यह निश्चित ही स्पष्ट हो जाएगा कि
‘जागरण’ की अपेक्षा ‘स्वप्न’ अधिक सत्य एवं प्रभावकारी है | इतना ही नहीं सोना जीव
के लिए वह भगवदीयविधान है जिसे जीव नित्यशः यह जाने-देखें कि ‘संसार कुछ भी नहीं
है सिवाय एक माया-जाल के, सिवाय एक माया महल के संसार कुछ है ही नहीं
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अस्तित्व में तो है ही
नहीं, याद के लिए भी नहीं है फिर इस संसार
के लिए अमूल्य जीवन को व्यर्थ में क्यों लगाएं क्यों गवाएं ? क्यों न हीं अपनें
चरम और परम लक्ष्य रूप परमात्मा-परमेश्वर-भगवान को प्राप्त कर माया-जाल से निकलने
का प्रयास करें | यही कार्य (निकालना) वर्तमान में मेरे द्वारा किया जा रहा है |
आप भी मेरे पास पहुँच कर संसार और शरीर के रहस्यमय गुत्थी को तथा साथ ही साथ जीव
(अहं) एवं आत्मा (सः ज्योति) और परमात्मा (आत्मतत्त्वम शब्द रूप परमतत्त्वरूपी भगवततत्त्व)
को मुझ से याथार्थतः
जान प्रत्यक्षतः देख एवं बात-चीत करते-कराते हुए स्पष्टतः परिचय-पहचान प्राप्त-करा
सकते हैं | मात्र तीन अहंताओ पर – (1) जिज्ञासु भाव २) श्रद्धालु भाव और ३) भगवत् शरणागत भाव पर
कर्म-धर्म-मुक्ति-अमरता आदि-आदि किसी भी प्रकार की (सम्पूर्ण) जानकारी मुझ से मिल
कर प्राप्त कर सकते हैं | इस में लेस मात्र की संदेह की गुंजाइश ही नहीं है |
मेरे यहाँ मानना नहीं बल्कि देखते हुए जानना और पहचानना और परखना और
तत्पश्चात् सत्य होने पर स्वीकाrरना है | आप मिल-जान-देख-पहचान कर सकते हैं | शेष सब भगवत् कृपा विशेष पर
आधारित | शेष सब मिलने पर |
नोट ----- आप अगली ‘पुष्पिका नम्बर -०२’ --- ‘वास्तविक
सत्य सदानन्द मत’ अवश्य पढ़ें | उस पुष्पिका को मेरे तरफ से अवश्य पढ़ें, यथार्थता
समझ में अवश्य आ जायेगी | मुझे विश्वास ही नहीं, भरोसा भी है | सब भगवत् कृपा |
संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परम हंस
सदानन्द तत्त्व ज्ञान
परिषद्, सदानन्द
तत्त्वज्ञान परिषद्,
‘परम पुरुष धाम आश्रम’ ‘श्रीहरि द्वार आश्रम’
आगरा-फतेहपुर सीकरी मार्ग, इण्डस्ट्रीयल एरिया,
महुअर – २३८१२२. रानी
पुर मोड़ रेलवे क्रसिंग के पास,
जिला – आगरा (उत्तर प्रदेश).
हरिद्वार- २४९४०१.
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