Aisa Hai ऐसा है. Guru Gyan ज्ञान.

       




                                         ऐसा
      


       है

        ------ प्रकाशक ------
              आनन्द आश्रम,       
           पोकरण.

  
                         ©
             प्रथम संस्करण ---    
          2012.
            1000 --- प्रतियाँ
        मूल्य  --- सद्भावी प्रेम.
अक्षर संयोजन :- मुकुन्द जी महाराज.
        मुद्रक :- भण्डारी ऑफसेट,
             जोधपुर, राजस्थान.



                                                    आमुख           
                 
           यह पुस्तक भगवत प्रेमी बंधुओं के लिए उपयोगी है संन्यास के लिए दीक्षा गुरु स्वामी श्री केशवानंद जी महाराज, अध्यात्म गुरु के लिए स्वामी श्री सत्यपाल जी महाराज, ब्रह्म ज्ञान के लिए गुरु स्वामी अलखानन्द अक्रिय जी महाराज तथा तत्त्व ज्ञान के लिए गुरु स्वामी संत ज्ञानेश्वर सदानन्द परम हंस जी महाराज के प्रति समय समय पर समर्पित भाव से जो ज्ञान मुझे प्राप्त हुवा है, उस का एक अंश मात्र इस पुस्तक में प्रकाशित है मैं इन सभी गुरुजनों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ

                                                                                --डॉ. मुकुन्द जी महाराज.
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                      विषय - प्रवेश          
                         अध्यात्म (अधि + आत्म = आत्मा की ओर) मार्ग कल्याण का मार्ग है। अपना कल्याण किस प्र्रकार हो, औरों के उद्धार के लिए मार्ग किस प्र्रकार प्रशस्त किया जाय आदि विषयों के सम्बन्ध में अनादि काल से अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित हुए। वर्तमान में भी आत्मकल्याण के साधन उपदेश आदि की कोई कमी प्रतीत  नहीं होती। वायु प्र्रदूषण, जल प्रदूषण, घ्वनि प्रदूषण की तरह समस्त सिद्धान्त, परम्परा, सद्ग्रंथ, मान्यता आदि में शब्द प्रदूषण इतना अघिक व्याप्त  है कि केाई भी निश्चित व्यक्ति या सिद्धान्त से सम्बन्धित व्यक्ति भी व्याकरण सम्मत शब्द – कोश सम्मत भाषा का प्रयोग करने में असमर्थ  रहते हैं। अपनी बातों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने हेतु सदैव तत्पर  विद्वान्, सन्त जन न श्रोता-जन को कहीं स्थिर कर पाते हैं और न तो श्रोताओं के लिए ही उनका निरूपण कोई काम का होता है। श्रोता एवं  वक्ता  दोनों धार्मिक ऊहा-पोह एवं मनोनुकूल स्थिति में समझते - समझाते रहते हुए अ-मूल्य समय यूं ही गंवाते रहते हैं। आत्म कल्याण के विषय में प्राचीन भारतीय परम्परा ऐसी नहीं थी।
                   ब्रह्मबोध, दिव्यज्ञान एवं तत्त्वज्ञान को प्राप्त कराने वाले संतजन का न पहले अभाव था न अभी कमी  है  किन्तु जिज्ञासा के अभाव तथा सच्चा सौदा प्राप्त करने के गुणों के अभाव में शब्द प्रदूषण में घिरे रहने से उपलब्ध ज्ञान (जानकारी) को ही अपना अभीष्ट लक्ष्य मानकर वहीं ठहर जाते हैं। असंयम एवं विषयों से जर्जर हो रहे तन-मन के लिए यह  ठहराव उचित जान पड़ता है। धार्मिक प्रदूषण एवं शब्द प्रदूषण बराबर अपने क्षुद्र ज्ञान का पोषण भी करता रहता है ऐसा व्यक्ति अपना कल्याण एवं सच्चे सुख की प्राप्ति के उपाय को न जान पाने के कारण अपने ही कृत-कर्म के दारूण यातनाओं को भोगते हुए इस संसार को छोड़कर चले जाते हैं।
                                                    सही मार्ग दर्शक सच्चे ज्ञान की प्राप्ति में हेतु होता है।
संत-महात्माजन जो जिस स्तर के ज्ञान को धारण करने वाले होते हैंउसी स्तर के ज्ञान का उपदेश वे मुमुक्षुओं को देते रहते हैं। जिस स्तर का

                 जिज्ञासु उसी स्तर का ज्ञान या जिस स्तर का उपदेषक उसी स्तर का
 ज्ञान देखा गया है। अतः अपने एवं उपदेशक के स्तर को समझना अति आवश्यक है। सांसारिक दुःखों से निवृत्ति तथा पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति में आत्मवेत्ता/ तत्त्ववेत्ता संत ही हेतु होते हैं। वे मुमुक्षुओं को तत्त्वज्ञान का उपदेश देते हैं  किन्तु ज्ञानीजन में सब के प्रति करुणा भाव का होना आवश्यक नहीं।
                                          आत्म कल्याण में अग्रसर जिज्ञासुओं को ज्ञान का बोध किस
 प्रकार  कराया जाय तथा मुमुक्षुजनों का उद्धार किस प्रकार हो इसका निर्णय प्राचीन काल में किया गया था। संसारिक ताप से संतप्त-जन को भव-सागर से पार कर तत्वज्ञान प्रदान करने  हेतु परस्पर सम्वाद (प्रश्नोत्तर) को आधार बनाया गया। गुरू-शिष्य के मध्य सम्वाद का प्र्रसंग सद्-ग्रन्थों में सर्वत्र उपलब्ध है।
                                       सम्वाद के द्वारा ज्ञान प्राप्ति में अन्य घटक भी महत्वपूर्ण स्थान
रखते हैं -- यथाः समय, अवस्था, परिवेष, समर्पण-भाव, मुमुक्षत्व की तीव्रता आदि। यह बात आज भी जिज्ञासु एवं मुमुक्षुओं के लिए पूर्ववत्अनुकूल एवं ग्राह्य है। गुरू/ शिष्य, वक्ता/ श्रोता, उपदेशक/ जिज्ञासु, संत/ श्रद्धालु आदि सभी के लिए यह परंपरा अलंघ्य है। अतः पाठक के हित में जैसा था/ जैसा है अर्थात् ‘‘ऐसा - है’’ पुस्तक की रचना की गयी है।
                                                         इस पुस्तक को लिखने में गुरूजनों द्वारा प्र्रदत्त ज्ञान
तथा स्वयं के अनुभव पर्याप्त होने के कारण प्र्रामाणिकता के लिए सन्दर्भ ग्रंन्थों कि सूची प्रस्तुत नहीं की गयी है। सद्-ग्रंथों में विद्यमान जिन संवादों को आधार मानकर इस पुस्तक कि रचना की गयी है वे इस प्रकार हैं   ---------

    1) राजा निमि --- योगेश्वर अन्तरिक्ष सम्वाद।
    2) नचिकेता  --- यमराज से सम्वाद।
    3) राजा इन्द्र --- उमा देवी/ गुरू बृहस्पति से सम्वाद।
    4) सुकेशादि 6 ऋषियों का --- महर्षि पिप्पलाद से सम्वाद।
    5) भृगु ऋषि का        --- (पिता) वरूण से सम्वाद।
    6) वैद्य अश्विनि कुमार का --- दध्वांगथर्वंण ऋषिसे सम्वाद।
    7) स्युरश्मी           ---     कपिल  सम्वाद।
    8) राजा कराल        ---   वषिष्ठ  सम्वाद।
    9) राजा जनमेजय     ---   वैषम्पायन  सम्वाद।


   10) राजा ययाति का ---- बोध्य ऋषि से सम्वाद।
   11) साध्य गणों का सुवर्णमय हंस से सम्वाद।
   12) राजा वसुमना का --- महर्षि वामदेव जी से सम्वाद।
   13) राजा रहूगएा (सैावीर नरेश) --- जड़ भरत सम्वाद।
   14) युधिष्ठिर जी का   --- भीष्म/बृहस्पति/ व्यास से सम्वाद।              
   15) राजा जनक का --- पराषर ऋषि/ सुलभा/  पञ्च शिख/ याज्ञवल्क्य/ अष्टावक्र                                                              आदि से  सम्वाद।
  16) नारद जी का --- शुकदेव/ सनकादि ऋषि आदि से सम्वाद।
  17) शुकदेव --- व्यास सम्वाद।
  18) अर्जुन/उद्धव का --- श्री कृष्ण से सम्वाद। यहां प्रश्नोत्तर के रूप में समस्त धार्मिक, आध्यात्मिक, ब्रह्म ज्ञान एवं तत्त्व ज्ञान सम्बन्धी विषयों को सारगर्भित एवं ठोस रूप में लिखा गया है। प्रत्येक प्रश्न एवं उत्तर ध्यान से पढ़ने योग्य है। यह प्रश्नोत्तर कई तरह की उलझनों को दूर करता है। जो कोई प्रश्न एवं उत्तर छूट गया हो उसके सम्बन्ध में पाठक सूचित करेंगे; उसका अगले संस्करण में समावेश किया जायेगा।
                                                       इस पुस्तक में ‘‘प्रथम आधार शिला’’ (प्रथम भाग)
में कल्याणकारी प्रधान विषयों को ठोस रूप में प्रस्तुत किया गया है। प्रश्नोत्तर से सम्बन्धित सभी सामग्री ‘‘द्वितीय आधार - शिला’’ (द्वितीय भाग) में है। ध्यान रहे कि आवरण चित्र में ‘‘है’’ तक पहुचनें में जो तीन आवरण बाधक स्वरूप हैं वे तीन गुणों के प्रतीक स्वरूप
समझने चाहिए। अन्य सभी आ-रेख (डाय-ग्राम)  स्वस्तिक चिह्न के  आधार पर बना हुआ है।

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                                     विषयानुक्रमणिका

                                         आधारशिला -- प्रथम
                   
                                                   परमात्मा का परिचय -- पृष्ठ 11; आत्मा का परिचय --
पृष्ठ 12; जीव का परिचय -- पृष्ठ 13; शरीर का परिचय -- पृष्ठ 14; संसार का परिचय -- पृष्ठ 15; जगत का कारण  -- पृष्ठ 16; माया का परिचय -- पृष्ठ 18; मनु्ष्य का ऊहापोह -- पृष्ठ 20; ज्ञानी की पहचान -- पृष्ठ  21; ज्ञान और अज्ञान --  पृष्ठ 22 ; ज्ञानी और अज्ञानी में भिन्नता  -- पृष्ठ  23; ज्ञान में दो विपरीत धाराओं का मिलन -- पृष्ठ 24; आत्मतत्व की दुर्लभता -- पृष्ठ 25; ब्रह्म वाक्य - पृष्ठ 26; जगत् के आश्चर्य --  पृष्ठ  26; मात्र क्या जानना पर्याप्त है ? - पृष्ठ 27; चार पुरुषार्थ ? -- पृष्ठ  28; गुरुजनों के प्रकार - पृष्ठ  30; समस्त सद्ग्रन्थों में प्रयुक्त गुरुजनों के प्रकार/ समूह - पृष्ठ 31; उपदेश पाने के अधिकारी -- पृष्ठ 36¬
                 
                                आधारशिला --- द्वित्तीय
       
                                        --- ( मुमुक्षु के प्रश्न ) ---

                                                        यम क्या है ? -- पृष्ठ  38; नियम क्या है ? पृष्ठ  38;
शम-दम, क्या है ? -- पृष्ठ 38; तितिक्षा किसे कहते हैं ? -- पृष्ठ 38; धैर्य, दान और तप क्या है ? -- पृष्ठ 38; शूरता, सत्य और ऋत किसे कहते हैं ? -- पृष्ठ 39; शौच, संन्यास और धन क्या है ? -- पृष्ठ 39; यज्ञ, दक्षिणा और बल क्या है ? -- पृष्ठ 39; लाभ, भग और विद्या क्या
है ? -- पृष्ठ 39; लज्जा और सच्चा सौन्दर्य क्या है ?-- पृष्ठ 39; सुख और दुःख किसे कहते हैं ? -- पृष्ठ 39; पण्डित और मूर्ख किसे कहते हैं ? -- पृष्ठ 40; सुमार्ग-कुमार्ग तथा स्वर्ग-नरक क्या है ? -- पृष्ठ40;

                                           सच्चा भाई-बन्धु तथा सच्चा घर किसे कहते हैं ? -- पृष्ठ 40;
धनी, दरिद्र तथा कृपण कौन है ? -- पृष्ठ 40; समर्थ-असमर्थ की पहचान क्या है ? -- पृष्ठ 40; दोष तथा गुण किसे कहते हैं ? -- पृष्ठ 40; निन्दा - प्रसंसा का क्या परिणाम होता है ? -- पृष्ठ 41; क्षमा का स्वरूप कैसा है ? -- पृष्ठ 41; शील क्या है और इसका क्या लाभ है -- पृष्ठ 41; मनुष्य  का महान् शत्रु तथा मित्र कौन है ? -- पृष्ठ 42; भवसागर से पार होने की योग्यता कब आती है ? -- पृष्ठ 42; मनुष्य के प्रकार -- पृष्ठ 42; गुरु मात्र से ही पूर्ण ज्ञान सम्भव है ? -- पृष्ठ 42; ज्ञान प्रवीण संत............... -- पृष्ठ 43; विद्याका परिचय -- पृष्ठ 44; विभिन्न विषयान्तर्गत गुरु-शिष्य......... -- पृष्ठ 45; श्रुति परम्परान्तर्गत -- पृष्ठ 45; गुरू-कुल/ गुरु के सान्निध्य में -- पृष्ठ 45; प्रकृति प्रदत्त ज्ञान -- पृष्ठ 46; ब्रह्म ज्ञान -- पृष्ठ 46; आत्म ज्ञान - पृष्ठ 46;  तत्त्व ज्ञान -- पृष्ठ 47; अतिरिक्त शिक्षा आत्मवोधात्मक संवाद -- पृष्ठ 47; तत्त्व ज्ञान से सम्बन्धित -- पृष्ठ 47; ब्रह्म के प्रकार -- पृष्ठ 47; वैराग्य किस प्रकार प्राप्त होता है ? -- पृष्ठ 48; जीव, जगत्, सुख-दुःख, द्वन्द्व और का समाधान -- पृष्ठ 49; आत्मा बद्ध है या मुक्त ? -- पृष्ठ 50; बन्धन और मुक्ति परस्पर क्या है ? -- पृष्ठ 50; किस भाव से मोक्ष की स्थिति प्रकाशित होती है ? -- पृष्ठ 51; क्या किया जाय ? -- पृष्ठ 51.



                       
                                   
                                            आधारशिला


             
                       

                                    /






                                प्रथम          





                          

                                       परमात्मा का परिचय
                          जो + है + वह = परमात्मा
   जो -   परम व्योम में रहने वाला समस्त कारणों से रहित महाकारण है - वह।
 जो - अनेक नाम-रूपों से जाना जाता है; किन्तु नाम रूपों से  सर्वथा अलग; वह यह है कह कर किसी भी तत्त्ववेत्ता के द्वाराआज तक व्यक्त नहीं हुआ है -- वह।

 जो -  सामाजिक एवं आध्यात्मिक संकट में किसी भी समय आविर्भूत तथा कहीं भी  
     नित्य, अंश, नैमित्तिक तथा पूर्ण रूपमें जगत् में अवतरित होता है -- वह।

 जो -  मायातीत हो कर मायाभिमुखी गतिधारा स्वीकार करते हुए अखिल जीवों को सारे     बन्धनों से मुक्त करने, तत्त्वज्ञान प्रदान करने तथा ब्रह्म-निर्वाण का विधान करने में       समर्थ होता है -- वह।

जो - वेद के द्वारा भी नेति-नेति कहकर छोड़ दिया गया था किन्तु; जिस किसी ने भी          उसके तत्त्व का बोध कराना चाहातात्पर्यार्थ अपना मूल कहा है -- वह।

जो - अवतार पुरुष के द्वारा समर्पित होकर जाना जाता है -- वह।

जो - सब काल में जानने में नहीं आता तथा एकदेशीय है -- वह।

जो - आदि कारण जो चेतन को जड़ करता और फिर जड़ को चैतन्य करता है -- वह।
                                         

                                                      (11)


                                  आत्मा का परिचय
                                   जो + है + वह = आत्मा
                         
जो - सबका कारण है -- वह।

जो - एकदम अचल होते हुए भी अत्यधिक तेज गति से चलायमान है कि अपने स्थान        पर बहुत पहले पहुंचा हुआ है। जो अत्यन्त दूर रहकर अत्यन्त नजदीक तथा जो        सब से एवं सब के बाहर रहते हुए सबमें समाया हुआ है। जो प्रवेश करने कि          आवश्यकता न होते हुए भी प्रवेश करता है एवं तृण से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त व्याप्त      है -- वह।
जो - सः, भूमा, ज्योति, ईश्वर, ब्रह्म  आदि नामों से जाना जाता है -- वह।
जो - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय में साक्षी तथा द्रष्टा भाव से रहते हुए; समाधि में भी      नित्य एक -रस रूप से रहता है -- वह।  

जो - सृष्टि, स्थिति तथा संहार का निमित्त और उपादान कारण (दोनों एक साथ)              सांगानांग; अद्भुत्, अनिर्वचनीय है -- वह।

जो - शरीर का निषेध करनेवाली प्रक्रियाओं द्वारा समर्पित होकर किसी योगी गुरु के द्वारा      जाना जाता है -- वह।

जो - सब काल में सुलभ होता है -- वह।  

जो - चिदानन्द है -- वह।

जो - महामाया से परे एवं परम तत्त्व से प्रकाशित है -- वह।
                 
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                                                (12)


                             जीव का परिचय
                             जो + है + वह = जीव

जो -  आत्मा तथा शरीर के संघात से उत्पन्न हुआ एकदेशिय तत्त्व ---   है -- वह।         
जो -  अस्तित्व में न होते हुए भी कारण रूप से शरीर में विद्यमान रहता है   -- वह।

जो - अन्तःकरण के मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार नाम से शरीर तथा शरीर के बाहर          सक्रिय अवस्था में रहता है -- वह।

जो -  शरीर में रहते हुए, शरीर से बाहर निकलते हुए, पुनः शरीर में प्रवेष करते हुए, नाना      प्रकार के विषयों का आस्वादन करते हुए विचित्र शक्ति को धारण करनेवाला है --        वह।  
जो - सूक्ष्म दृष्टि का विषय; समय-समय पर कर्म का भ्रम उत्पन्न कर स्वयं का जटिल        स्वरूप प्रस्तुत करता है -- वह।
जो - नाना प्रकार के लोकों में विचरण करते हुए महा - प्रलय पश्चात् भी परमात्मा में        लीन हुए है  -- वह।

जो - शरीर में सः/हं के साथ समन्वित हो कर रहता है    -- वह।        

जो - जीव का बोध हुए ज्ञान प्रवीण व्यक्ति के संकल्प शक्ति द्वारा सब काल में जानने          समझने में आता है  -- वह।
जो - जो षरीर रूपी जल पात्र (घट) में चेतन का  बिम्ब है -- वह।
                               ---------------------------------------------


                                                          (13)


                        शरीर का परिचय
                                      जो + है + वह =शरीर
             
                                                 बहुत होने की तथा अपने स्वरूप को प्रकाशित करने की
इच्छाशक्ति से अधोगति को स्वीकृत देहात्मबुद्धिवाला जीव; जब शरीर से टूटे तत्व का आश्रय लेकर गर्भाषय में गतिशील होता है तब - पक्षान्तर में ठीक उसी समय कारण शरीर से युक्त कोई जीव अपनें कर्मों के वेग से प्रेरित हो, उस अंश को आत्मसात् कर स्त्री
रज से युक्त हो निषेचित हो जाता है तत्पश्चात् गर्भवृद्धि काल में अनेक तत्त्वों से प्रभावित, कई नाम रूपों वाला हो कर नौ/दस मास पर्यंन्त रह कर बाद में गर्भस्थ शिशु प्रसूत वायु से गर्भाशय से बाहर निकाल दिया जाता है और पूर्ण मानव शरीर का जन्म होता है। गर्भ पीड़ा से मुक्त, पूर्व संस्कारों से युक्त गर्भस्थ जीव संसार में आकर नाम, जाति, गुण, क्रिया,
सम्बन्ध, अस्तित्व आदि अन्यान्य  उपद्रवों का सामना करता है। प्रतीतिमय शरीर को लेकर क्षणभंगुर संसार में अपनी चिरस्थायी व्यवस्था के लिए यत्नशील हो जाता हैं। मनुष्य मायिक - शरीर और मायिक-घेरे में नाना प्रकार के मायिक नाग-पाश द्वारा आबद्ध हो कर विचरण करता रहता है। यह मनुष्य का सामान्य परिचय है। अपना कल्याण चाहनेवाले व्यक्ति माया की एक श्रृंखला से दूसरी श्रृंखला में जाने एवं स्वयं को उन्मुक्त एवं जीवन
- मुक्त मानने के भ्रम को त्याग कर इस शरीर में तथा इस मायिक घेरे में, भीतर रहकर अन्तःकरण के सम्यक् व्यवहार के द्वारा जीवन मुक्त हो सकता है; ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर सकता है अन्यथा कोई रास्ता नहीं है।
                
                                                               (14) 



                                       संसार का परिचय

                                         संसरति गच्छति इति संसारः। सरकते हुए जो चल रहा है वह
संसार है। यह संसार अनित्य होते हुए भी अनादि एवं प्रवाह-रूप से नित्य है; अतः नदी के दृष्टान्त से समझा जा सकता है। सभी को स्पष्ट दिखाई देने वाली यह ऐसी नदी है जिसमें पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ही पांच स्रोत हैं। इन्हीं में से होकर संसार-प्रवाह बना रहता है। इस नदी
का प्रवाह  बड़ा ही कपटपूर्ण एवं वक्र-गति वाला है। पञ्च-प्रवाह रूपी नदी का उद्गम एवं मूल स्थान मन है। मन से संसार की सृष्टि होती है। मन यदि अमन हो जाए तो जगत् का अस्तित्व इस रूप में नहीं रहता। शब्द, स्पर्ष, रूप, रस और गन्ध ये पांच इस नदी के आवर्त (भँवर) हैं। इन्हीं में फँस कर मनुष्य जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि एवं गर्भ-दुःख प्राप्त कर इस पांच प्रवाह में प्रवाहित रहता है। यह पञ्चविध क्लेश में ही संसार बँटा हुआ है। फिर अन्तःकरण की अनेक वृत्तियों को ले कर संसार की भेद/ अनेक भेदों एवं प्रतीतियों की गिनती नहीं की जा सकती। नदी में हलचल तरंगों से होती है। जगत के जीवों में जो कुछ भी चेष्टा रुपी हलचल होती है वह प्राणों के द्वारा ही होती है। इसलिए प्राणों को इस
भव सरिता की तरंग-माला कहा गया है।
                                              संसार एक सनातन वृक्ष है। इस वृक्ष का आश्रय है प्रकृति।इसका बीज है अज्ञान। देहात्मबुद्धि उसका अंकुर तथा कर्म जल है। इस वृक्ष के दो फल हैं --- सुख और दुःख। ( असंख्य वासना रूपी ) तीन जड़ें हैं - सत्त्व, रज और तम। चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इस रस के पाँच प्रकार हैं -- श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और
नासिका। इसके छः स्वभाव है - उत्पन्न होना, रहना, बढ़ना, बदलनाघटना  और क्षय/नष्ट होना। सात धातुएँ इस वृक्ष की छाल हैं --- रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। आठ शाखाएँ हैं - आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, मन, बुद्धि और अहंकार। इसके मुख आदि नव द्वार खोंड़़र हैं। प्राण, अपान आदि दस प्राण ही पत्ते है और विषय --- पुष्प हैं। इस संसार रूपी वृक्ष में दो पक्षी रहते हैं ---
       
                                                             (15)

जीव और ईश्वर। इस वृक्ष का आधार एक मात्र परमेश्वर ही है। उसी से इसकी रक्षा होती है तथा उसी में इस वृक्ष का प्रलय होता है। जगत् के मिथ्यात्व को स्वीकार कर जगत् के स्वरूप का किसी भी प्रकार से निरूपण किया जा सकता है यथा: -- दुःखालयम्  शाश्वतम् अर्थात् यह संसार अनादि काल से दुःख का घर है। भवसागर - यह होने वाला समुद्र है। कोई भी एक काम के होने (भव) से कई कार्यों का जन्म होता है। फिर वह कई कार्य अनेक कार्यों का श्रीगणेश करता है। यह जगत् चित्त का विलास है; जो समझते - समझते तत्त्व कहीं जाकर समझ में आता है कि वास्तव में यह चित्त का विलास है। ‘‘मैं’’ जीव
है और ‘‘मेरा’’ संसार है। वह ‘‘मेरा’’ शरीर और शरीर से उत्पन्न हुए; शरीर से लेकर समस्त दृश्यमान वस्तु सभी में समान रूप से लागू होता है। मुमुक्षुजन अपने कल्याण के लिए ‘‘मेरा’’ को गुरु को सौंपते हैं और गुरुजन उसके ‘‘मैं’’ का उद्धार करते हैं। यह सनातन परम्परा आज तक यथावत है।

            जगत् का कारण

                                          वेद-शस्त्रों में जगत् के अनेक कारणों का वर्णन आता है। कहीं
काल को कारण बताया गया है, क्योंकि किसी न किसी समय पर वस्तुओं की उत्पत्ति देखी जाती है। प्रलय भी काल के अधीन देखा बताया जाता है। कहीं स्वभाव को कारण बताया जाता है क्यों कि बीज के अनुरूप ही वृक्ष की उत्पत्ति होती है। जिस वस्तुमें जो स्वाभाविक शक्ति है, उसी से उसका कार्य उत्पन्न होता देखा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि वस्तुगत शक्ति रूप जो स्वभाव है वह कारण है। कहीं कर्म को कारण बताया गया है, क्योंकि कर्मानु - सार जीव भिन्न-भिन्न योनियों में भिन्न-भिन्न स्वभाव आदि से युक्त हो कर उत्पन्न होते हैं। कहीं आकस्मिक घटना को अर्थात् भवितव्यता (होनहार) को कारण बताया   गया है। कहीं पञ्चमहाभूतों को कारण बताया गया है। आदि-आदि। विचार करके देखा जाय तो यह समझ में आता है कि इस चराचर जगत् का वास्तविक कारण काल से लेकर पञ्चमहाभूतों तक बताये गये जड़

                                                         (16)

पदार्थों में से कोई भी { जगत् के कारण } नहीं। वे  अलग - अलग तो क्या; सब मिलकर भी जगत् के कारण नहीं हो सकते क्योंकि ये सब जड़ होने के कारण चेतन के अधीन है। इसमें स्वतन्त्र कार्य करने की शक्ति नहीं है। जिन जड़ वस्तु के मेल नहीं है। जिन जड़ वस्तु के मेल से कोई नई चीज उत्पन्न होती है वह उसके संचालक चेतन आत्मा के ही अधीन होती है। इसके सिवाय जीवात्मा भी जगत् का कारण नहीं हो सकता क्योंकि वह सुख - दुःख के हेतु प्रारब्ध के अधीन है। वह भी स्वतन्त्र रूपसे कुछ नहीं कर सकता। अतः कारण तत्त्व कोई और ही है।
                                      आदि काल में युक्तियों और अनुमान से जिज्ञासु पुरुष जब किसी
निर्णय पर नहीं पहुंच सके तब वे ध्यान योग में स्थित हो गये। अपने मन इन्द्रियों को बाहर के विषयों से हटाकर परब्रह्म को जानने के लिए उन्हीं का चिन्तन करने में तत्पर हो गये। विविध ध्यान के फल स्वरूप उन्हें परमात्मा की महिमा का ज्ञान हुआ। उन परम देव परब्रह्म पुरुषोत्तम की स्वरूपभूत अचिन्त्य दिव्य षक्ति का साक्षात्कार किया। उस समय जिज्ञासुओं को जगत् का आदि कारण कौन है इसका इस प्रकार ज्ञान हुआ था। सत्त्व-रज-तम से अर्थात् अपने ही गुणों से ढका हुआ यह जगत् त्रिगुणमयी प्रतीत होता है किन्तु स्वयं तीनों गुणों से परे है। पहले विचार करने पर जितने कारण (काल से लेकर आत्मा तक) बताये गये हैं उन समस्त कारणों का जो अधिष्ठाता स्वामी है अर्थात् वे सब जिसकी आज्ञा और प्रेरणा पाकर, उस षक्ति के किसी एक अंश को ले कर अपने-अपने कार्यों को करने में समर्थ होते हैं, वे एक सर्वषक्तिमान् परमेश्वर ही जगत् के वास्तविक कारण है दूसरा कोई नहीं है।
                       
                                                            (17)

                                      माया का परिचय

                                                           माया के सम्बन्ध में अपुष्ट विचार यत्र-तत्र मिलते
हैं; जो आंशिक रूपसे सही है। यथा:-- माया = नहीं है जो (मा =नहीं यः =जो )। माया = समस्त इन्द्रियों की सीमा में आनेवाली सारी वस्तुएँ। माया = तृणसे से लेकर ब्राह्म लोक पर्यंन्त। माया = जो प्रतीतिरूपक्षणभंगुर एवं स्वतन्त्र अस्तित्व से हीन है। माया = मैं-मेरा तथा मिथ्या। भगवान की माया स्वरूपतः अनिर्वचनीय है इसलिए उसके कार्यों के
द्वारा ही उसका निरूपण भलीभांति हो सकता है। माया बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित कर सकती है अतः माया तथा महामाया का निरूपण निम्नलिखित ------ समस्त वाक्यांसों को एक साथ समझने से ही हो सकता है: -
   1)                                            आदि पुरुष सबके कारणरूप  भगवान् ने अपने अंश रूप
   जीव को भोग और मोक्ष प्रदान करने के लिए अपनी जिस शक्ति के द्वारा पञ्चभूतों से     ऊचे-नीचे शरीर ( समस्त योनियाँ ) उत्पन्न किये हैं = माया।

   2)                                        जीवों के उपकार के लिये  पञ्चभूतों के द्वारा रचे हुए शरीर     में अंतर्यामी रूपसे प्रविष्ट हो कर मन-बुद्धिके द्वारा विषयों का विभाग कर जीव को       जिस शक्ति के द्वारा विषयों के माध्यम से नाना प्रकार के विषय-भोग करवाते हैं         = माया।
   3)                                               अंतर्यामी से प्रकाशित हुई इन्द्रियों के द्वारा विषयों को
      भोगता हुआ उससे उत्पन्न हुए स्वरूप-भूत देह को अपना स्वरूप मानता हुआ जीव      जिस शक्ति के द्वारा देह-गेहादि के बन्धन से युक्त हो जाता है = माया।
   4)                              कर्म संम्बन्धी इन्द्रियों के द्वारा कर्म करता हुआ, उसके परिणाम       स्वरूप सुख-दुःख रूप फल को ग्रहण करता हुआ जीव जिस क्ति के द्वारा मुक्ति         न पाकर संसार में भटकता हुआ जन्म-मरण-दुःख भोगता रहता है तथा प्रलयकाल       पर्यंन्त नाना प्रकार के दुःख देने वाले कर्म की गतियों को पाता हुआ परतन्त्र बना       रहता है =  माया।

                                                            (18)


   5)                                        आदि-अन्त रहित काल; प्रलय के आरम्भ में जिस शक्ति के
      द्वारा अपने रचे हुए पञ्चमहाभूतों को सूक्ष्म तन्मात्राओं में, सूक्ष्म तन्मात्राओं को        अव्यक्त प्रकृति में तथा अव्यक्त प्रकृति को अपने आपमें लीन करने के लिए अपनी      ओर संकर्षण कर रहा है । प्राणियों के शरीर अन्न में, अन्न बीज में, बीज भूमि में
     और भूमि गन्ध तन्मात्रा में लीन हो जाती है। वायु पृथ्वी की गन्ध खींच लेती है,            जिस से वह जल के रूप में हो जाती है और वही वायु जल के रस को खींच लेती है    तब वह जल अपने कारण अग्नि बन जाता  है। जब अंधकार अग्नि का रूप छीन      लेता है तब वह अग्नि वायु में लीन हो जाता है।
                                                 जब अवकाश-रूप आकाश वायु की स्पर्ष-षक्ति छीन लेता
है तब वह आकाश में लीन हो जाता है। तदनन्तर काल आकाश के शब्द गुण को हर लेता है जिससे  वह तामस अहंकार में लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ और बुद्धि राजस अहंकार में तथा मन सात्विक अहंकार में प्रवे कर जाता है। त्रिविध अहंकार महतत्त्व में और ज्ञान-शक्ति /क्रिया-शक्ति प्रधान महतत्त्व अपने कारण गुणों में लीन हो जाते हैं। गुण अव्यक्त प्रकृति में और अव्यक्त प्रकृति काल में लीन हो जाती है। काल मायामय जीव में तथा जीव उपाधि रहित आत्मा में लीन हो जाता है। यह जगत् की सृष्टि और लय का अधिष्ठान एवं उपाधि है जो पुनः उलटे क्रम से सृष्टि होती है = माया।

                       
                                                        (19)

                                मनुष्य का ऊहापोह

                                                            तृण से लेकर ब्रह्मलोक पर्यंन्त समस्त वस्तुओं के
प्रति घृणा बुद्धि का अभाव; जिस व्यक्ति से जगत् का रहस्य एवं परमात्मा का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहता है उसके प्रति पूर्ण समर्पण का अभाव या समर्पण में न्यूनता; अपने हीन संस्कारों में सन्तुष्ट एवं आत्म कल्याण हेतु उत्कट जिज्ञासा का अभाव आदि के फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति अध्यात्मिक ऊहापोह के भंवर में फंसा रहता है। जिसके फलस्वरुप गर्भ में पिता के जिस तरह का परिपक्व (शारीरिक एवं मानसिक स्थिति) संस्कार आदि को लेकर मनुष्य शरीरमें आया है उस उस स्वभाव का पोषण करते हुए
जगत् में गतिशील रहता है। आत्म कल्याण सम्बन्धी विषय को अपनी प्रकृति के अनुकूल परिभाषित कर मूल ज्ञान से स्वयं वंचित रहता है देशकाल, अवस्था, प्रयोजन, भाव, ग्रह - गोचर दशा आदि के अधीन व्यक्ति भाग्यद्वारा चलायमान एवं भाग्य के अनुरूप अपने कल्याण का विकल्प ढूँढ कर पुरुषार्थ करता है। इस तरह के व्यक्ति सदा तमोगुण के आवरण शक्ति --- ‘‘मल’’ तथा माया की विक्षेप षक्ति ‘‘प्रपंच व्यवहार’’ में रह कर स्वयं को ऊहापोह में डाल देता है। इस उहापोह में निम्न 4 बातें होती है:----
   1) अभावना           =     ब्रह्म नहीं है।
   2) विपरीत भावना      =     मैं शरीर हूं।
   3) असंभावना          =     किसी के होने में सन्देह।
   4) विप्रतिपत्ति          =     है या नहीं इस तरह का संशय।
                                                   जबकि आत्म कल्याण चाहनेवाला जीव त्रि-ताप से तप्त
होकर माया की श्रृंखलाओं से निकलने के लिए व्यग्र होता है। जब संसार को पूरी तरह भूलकर परमात्मा के साथ एकात्म भाव प्राप्त करने लिए सद्गुरु के शरण में जाता है तब आत्मतत्त्व का बोध पाकर कहीं ऊहापोह की स्थिति से निकल सकता है।

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                                                           (20)
                           
                                      ज्ञानी की पहचान

                                              ज्ञानदाता द्वारा जिज्ञासु को प्रदत्त ज्ञान (जानकारी) द्वारा ही
ज्ञानी सन्त के स्तर की पहचान होती है। पाँच स्तर के सन्त जगत् में समयानुसार उपलब्ध होते हैं। यथा:--
1) सांसारिक गुरु --- संसार तथा सद्ग्रन्थों के विवेकपूर्ण ठोस प्रमाणों द्वारा जब कोई व्यक्ति उपदेश करता है वह संसारिक गुरु कहलाता है।
2) दार्शनिक गुरु --- न्यूनाधिक क्रियाओं तथा जगत् के सूक्ष्म तत्त्वोंपर प्रकाश डालते हुए ‘‘यह जगत् कुछ नहीं है’’,‘‘मैं कुछ नहीं हूं’’ तथा यहां से वहां तक जहान में कुछ नहीं है इत्यादि; ऐसी स्थिति को प्राप्त कराने में समर्थ विचारक दार्शनिक गुरु होता है।
3) आत्मवेत्ता गुरु --- जो संसार व शरीर का पूर्णरूपेण निषेध करनेवाली समस्त साधनाओं का विधिवत् उपदेश करता है वह महात्मा आत्मवेत्ता गुरु कहलाता है।  
4) ब्रह्मवेत्ता गुरु --- जो व्यक्ति बिना किसी क्रिया के ही जगत् के प्रति मिथ्यात्व एवं ब्रह्म के प्रति दृढ़ अभिनिवेश कायम कर देता है वह सन्त ब्रह्मवेत्ता गुरु कहलाता है।
5) तत्त्ववेत्ता गुरु --- परमतत्त्व को बोध करानेवाले समस्त साधनों का निषेध करके उस निषेध का मूल कारण तथा स्वयं में अवतरित उस आत्म-तत्त्व का बोध कराते हुए जिज्ञासु शिष्य का ‘‘मैं - मेरा’’ स्वयं के मैं को लीन करने में समर्थ पुरुष तत्त्ववेत्ता गुरु कहलाता है।
                       
                                                            (21)


                                         ज्ञान और अज्ञान

                                                     ज्ञाता जिस वृत्ति के अन्तर्गत रहकर किसी ज्ञेय पदार्थ
के स्वरूप को भलीभाँति समझता है उस वृत्ति को ज्ञान कहते हैं। ज्ञेय पदार्थ को भलीभाँति समझने की वृत्ति में न्यूनाधिक होना अज्ञान का परिचायक है। ज्ञान-अज्ञान का विषेश परिचय स्तर भेद के कारण अनेक प्रकार से प्रस्तुत किये जा सकते हैं। समान्यतः अज्ञान ही इस जन्म-मृत्यु रूप संसार का एक मात्र कारण है और मूलोच्छेद ही ज्ञान है।
                                            अपने वास्तविक स्वरूप को तथा जगत् के कारण एवं महा 
कारण तत्त्व को जानना चाहिए। समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत् से अतीत, द्वैत के गन्ध से रहित एवं निराधार किन्तु अपने आप में स्थित तत्त्व को जान कर धीरे-धीरे स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर आदि में जो सत्यत्त्व-बुद्धि हो रही है; उसे क्रमशः मिटाना ज्ञान का लक्षण है। इसका अभाव या विपरीत स्थिति अज्ञान है।
                                  यज्ञ में जब अरणि मंन्थन करके अग्नि उत्पन्न करते हैं तब उसमें
नीचे - ऊपर दो लकड़ियाँ रहती है और बीच में मन्थन काष्ट रहता है। वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि के उत्पत्ति के लिए आचार्य और शिष्य तो ऊपर- नीचे की अरणियाँ हैं तथा उपदेश मन्थन काष्ठ है। इन में से जो ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है, वह विलक्षण सुख देनेवाली है। इस यज्ञ में बुद्धिमान् जिज्ञासु शिष्य जो अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है; वह गुणों से बनी हुई विषयों की अज्ञानता को भस्म कर देता है। अन्त में वे गुण भी भस्म हो जाते हैं; जिनसे यह संसार बना हुआ है। इस प्रकार सबके भस्म हो जाने पर आत्मतत्त्व के अतिरिक्त कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती। ज्ञानाग्नि भी ठीक वैसे ही अपने वास्तविक
स्वरूप में षान्त हो जाती है जैसे समिधा न रहने पर आग बुझ जाती है। यही ज्ञान अैर अज्ञान का संक्षिप्त स्वरूप है।

                     
                                                            (22)


            ज्ञानी और अज्ञानी में भिन्नता

                                                       यहाँ ज्ञानी और आज्ञानी में जो प्रधान भेद हैं उसकी
चर्चा की जा रही है। अज्ञानी कर्म नहीं करते हुए भी कर्म करता है और ज्ञानी पुरुष कर्म करते हुए भी कर्म नहीं करता है। अज्ञानी यथार्थ तत्त्व सुनकर मूढ़ता को प्राप्त होता है; लेकिन कोई ज्ञानी मूढ़वत् हो कर संकोच या समाधि को प्राप्त होता है। अज्ञानी चित्त की एकाग्रता (निरोध) का बहुत अभ्यास करता है लेकिन ज्ञानवान् (धीर-पुरुष) सोये हुए व्यक्ति की तरह अपने स्वभाव में स्थित रहकर कुछ करने योग्य नहीं देखता।
                                                            अज्ञानी पुरुष प्रयत्न अथवा अप्रयत्न से निवृत्ति को
प्राप्त नहीं होता।  जबकि ज्ञानी पुरुष केवल तत्त्व को निश्चयपूर्वक जानकर ही निवृत्त हो जाता है। अज्ञानी पुरुष अभ्यासरूपी कर्म से मोक्ष को नहीं प्राप्त होता। जबकि क्रिया रहित ज्ञानी पुरुष केवल ज्ञान के द्वारा मुक्त हुआ स्थित रहता है।
                                                     अज्ञानी जैसे ब्रह्म होने की इच्छा करता है वैसे ही ब्रह्म
नहीं हो पाता है। ज्ञानवान् पुरुष नहीं चाहता हुआ भी निश्चित ही परब्रह्म के स्वरूप में स्थित हो जाता है। इस आधार रहित, दुराग्रह-युक्त संसार का पोषक अज्ञानी पुरुष ही है। इस अनर्थ के मूल संसार का मूलोच्छेद ज्ञानियों के द्वारा किया जाता है। अज्ञानी जैसे शान्त होने की इच्छा क्रता है वैसे ही वह शान्ति को प्राप्त नहीं होता किन्तु ज्ञानी पुरुष तत्त्व को जानकर सदैव शान्त मनवाला हो जाता है। अज्ञानी दृष्य प्रपंच का अवलम्बन करता है जबकि ज्ञानी अविनाशी तत्त्व को देखता है।
                                                        जो दृढ़ पूर्वक चित्त का निरोध करता है उस अज्ञानी
का चित्तवृत्ति का निरोध कहाँ होता है ? स्वयं में रमनेवाले धीर पुरुष ज्ञानी के लिए यह चित्तवृत्ति निरोध स्वाभाविक है। सुख जो ज्ञान का फल है वह ज्ञानी पुरुष को प्राप्त होता है। अज्ञानी को सुख कहाँ ? अज्ञानी चाहे कितनी ही भावना कर ले कि आत्मा है, परमात्मा है, संसार मिथ्या हैमाया है, ब्रह्म ही सत्य है, मैं ब्रह्म हूं, जीव - जगत् व ब्रह्म एक ही है इत्यादि; तो भी वह  सुख को प्राप्त नहीं हो सकता; क्योंकि भावना करने से सुख

                                                          (23)

नहीं मिलता; सुख मिलता है जानने से। किन्तु कु-बुद्धि पुरुष संसार के प्रति मोह बनाये रखता है जिससे वह यथार्थ जान नहीं सकता। जो ज्ञानवान् संयम को प्राप्त नहीं हो सका है वह भी ज्ञानके प्रगल्भ (नित्य बढ़नेवाली शक्ति) भक्ति  के कारण यथा शीघ्र संयम को प्राप्त हो जाता है।
                                                                   ज्ञानी पुरुष की स्वाभाविक उच्छृंखल स्थिति
भी शोभती है लेकिन स्पृहा युक्त चित्तवाले अज्ञानी की बनावटी शक्ति भी नहीं शोभती। अज्ञानी कर्मों को नहीं करता हुआ भी सर्वत्र संकल्प-विकल्प के क्षोभ से व्याकुल रहता है। और ज्ञानी सब कर्मों को करता हुआ भी शान्त चित्तवाला ही होता है।
                                              मूर्ख मनुष्य की निवृति भी प्रवृति बन जाती है किन्तु धीर
पुरुष प्रवृत्ति  भी निवृत्ति के समान फल देती है। अज्ञानी पुरुष की वैराग्य परिग्रह से देखा जाता है लेकिन देह में गलित हो गयी है आशा; ऐसे ज्ञानी का राग कहाँ ? कहाँ वैराग ? आज्ञानी पुरुष की दृष्टि सदा भावना और अभावना में लगी रहती है। ज्ञानवान् पुरुष सन्तुष्ट होकर भी सन्तुष्ट नहीं होता और दुःखी होकर भी दुःखी नहीं होता उसकी इस आश्चर्यमय दशा को ज्ञानीजन ही जानते हैं; अज्ञानीजन नहीं।

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           ज्ञान में दो धाराओं का मिलन होता है।
         
                                                     तत्त्ववेत्ता के जीवन में दो धाराओं का मिलन होता है।
मायातीत की मायाभिमुखी गति धारा और मायाधीन की मोक्षाभिमुखी गति धारा। तत्त्ववेत्ता जीव को माया की श्रृंखलाओं से मुक्त करने के उद्देष्य से ही मायिक जगत् (राज्य) में अवतरित होते हैं; जीव को अपने धाम की ओर आकर्षित कर ले जाने के लिए जीव के सामने उतर आते हैं, भगवत्तत्त्व और जीवत्त्व अर्थात् मायातीतत्त्व और मायाधीनत्त्व के व्यवधान को हटा देते हैं। यही तत्त्ववेत्ता की नित्य जीवाभिमुखी गतिधारा है, मायातीत

                                                            (24)


की मायाभिमुखी गतिधारा है। पक्षान्तर में; जीव त्रि-ताप से तप्त होकर माया की श्रृंखलाओं से मुक्त होने के लिए व्यग्र होता है तथा उस के लिए पुरुषार्थ करता है और यह पुरुषार्थ अवतार जीवन में प्रत्यक्ष होता है। यही मायाधीन की मोक्षाभिमुखी गतिधारा है।
                                                         मानव जीवन की समस्याएं गुरुतर हैं। तत्त्वज्ञान में
जटिल, दुर्भेद्य, निगूढ़ एवं सार्थक रहस्य विद्यमान है। ऐसे में मनुष्य मायिक शरीर और मायिक घेरे में नाना प्रकार के मायिक नागपाश द्वारा आबद्ध होकर विचरण करता है। जीवन मुक्ति की अभिलाषा रखने वाले व्यक्ति को इस देह में, इस मायिक घेरे में भीतर रहकर अन्तःकरण के सम्यक् व्यवहार द्वारा मायामुक्त होना होगा; ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करनी
होगी।
                                                                     उसको वैषम्य के साथ साम्य का, ससीमता
के साथ असीमता का, चांचल्य के साथ स्थिरता का, भोग के साथ त्याग का, सांसारिक स्थिति के साथ तत्त्वनिष्ठ स्थिति का मिलन कराना होगा। इस जगत् के परिवर्तनशील स्रोत में प्रवाहित होते हुए भी नित्य अपरिवर्तनीय बोध करना होगा। शीतोष्ण, मान-अपमान, सुख-दुःख, जैसे प्रवृति के प्रचण्ड आक्रमण के बीच अपने को अ-संग, अ-विचलित, सदानन्दमय रखना होगा। जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि में जन्म हीन, मृत्यु हीन, जरा हीन,
व्याधि हीन अनुभव करके सब प्रकार के विकारों से ऊपर उठना होगा। यह जगत् त्रिगुणमय है। सब कुछ सत्, रज, तम विकार से उत्पन्न हैइसी जगत् में रहकर गुणातीत होना होगा।          
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                              आत्मतत्त्व की दुर्लभता
      

                                                     कई जन्मों के पश्चात अन्तिम जन्म में प्राप्त होनेवाला
तत्त्वज्ञान अत्यन्त दुर्लभ है। आत्मतत्त्व के बारे में बहुतों को तो सुनने को भी नहीं मिलता। सुनकर भी बहुत से लोग समझने के लिए अग्रसर नहीं होते तथा प्रयास करने पर भी समझ नहीं पाते। यह तत्त्व समझनासमझाना तथा समझमें आने के बाद उस ज्ञान को यथावत् बनाये रखने में व्यवधान ही व्यवधान है। उस आत्मतत्त्व का उपदेशक
                                         
                                                                                                                                                                                          (25)


आश्चर्य पुरुष होता है। उस दुर्लभ ज्ञान को प्राप्त करनेवाला ज्ञानी महा पुरुष भी बड़ा
ही कुशल, भाग्यशाली एवं सफल जीवनवाला होता है। यह आश्चर्यमय पुरुष की तरह ज्ञाता भी आश्चर्य पुरुष होता है। यह ज्ञान बिना किसी तत्त्ववेत्ता के समझ में आ जाए; ऐसा सम्भव नहीं। तत्त्ववेत्ता ज्ञानी पुरुष के द्वारा उपदे प्राप्त किये बिना इस विषय में मनुष्य का प्रवे नहीं होता। यह विषय सूक्ष्मातिसूक्ष्म से भी सूक्ष्म तथा तर्क से कठिन एवं अत्यन्त गहन विषय है।        
                                --------------------------------------------

                                           ब्रह्म - वाक्य

                     
           
                                                       जिन शब्दों को भलीभांति तोड़-फोड़ एवं समीक्षा कर समझने-समझाने में, परब्रह्म के बोध में सहयोग मिलता है अर्थात् सद्गुरु अक्षर समूह के शब्द को अन्वय-विच्छेद कर शब्द बाह्य आवरण के भेदन कर शिष्य परम तत्त्व/आत्म तत्त्व का बोध कराने; उस बोध को स्थायित्व प्रदान करने में समर्थ होता है; वह शब्द उस समय का ब्रह्म-वाक्य नाम से जाना जाता है। इसे गुरु मन्त्र भी कहते हैं। प्राचीन धर्म ग्रन्थों में उल्लिखित ब्रह्मवाक्य इस प्रकार हैं। यथा:--- अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसिप्रज्ञानं ब्रह्म, सर्वं खल्विदं ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, सोऽहं, हंसो, ॐ तत् सत्आत्मतत्त्वम् आदि। परम तत्त्व का ज्ञान गुरु में शिष्य के प्रति करुणा का भाव उदय होने पर ही ब्रह्मवाक्य के विस्फोट द्वारा संम्भव होता है अन्यथा नहीं।                    
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                                        जगत् का आश्चर्य

         
                                                   हाड़-मांस आदि का यह स्थूल शरीर अव्यक्त सूक्ष्म जीव के द्वारा संचालित होता है। उसका इस शरीर में होना आश्चर्य है। यदि यह जीव कभी भी                                      
                                                             (26)


किसी भी कारण से शरीर को छोड़ दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। ऐसी स्थिति में  इस संसार में आश्चर्य की सीमा ही नहीं है।
                                                 मनुष्य नित्य निरन्तर मृत्यु को प्राप्त होता हुआ प्राणियों
को देखता रहता है किन्तु स्वयं मन में यह विचार दृढ़मूल कभी नहीं हो पाता कि वह भी मृत्यु का ग्रास बनने जा रहा है। निरंजन, निर्दोष, शान्त प्रकृति से परे बोध स्वरूप होते हुए भी मनुष्य मोह के द्वारा ठगा गया है यह आश्चर्य है। 
                                                      परमात्मा को प्राप्त करने के लिए जो कोई इस संसार
को भूल जाता है और वह यह समझने लगता है कि ‘‘जैसे जल से तरंगफेन, भंवर और बुदबुद भिन्न नहीं है; वैसे ही विष्व आत्मा से भिन्न नहीं है वरन् आत्मा से ही निकला हुआ है। जैसे ईख (गन्ना) के रस से बनी हुई शर्करा ईख के रस में व्याप्त है; वैसे ही चेतन से बना हुआ संसार चेतन में व्याप्त है आदि; ऐसा समझ में आना कम आश्चर्य की बात नहीं।
                                                 आश्चर्य है कि यह सृष्टि अनन्त समुद्र में उठी हुई विचित्र
तरंगें हैं जो चित्त रूपी वायु के झोंकों से उठती है। आश्चर्य है कि अनन्त महासागर रूप आत्मा में जीव रूप तरंगें उठती है, परस्पर संघर्ष करती हैखेलती है तथा स्वभाव में ही लय हो जाती है। आश्चर्य है कि भूतों में आत्मा को तथा आत्मा में समस्त भूतों को जानकर भी विषय एवं प्रतीतियो के प्रबल प्रवाह के कारण मुनियों को भी ममता होती है।
                                                    जो इहलोक और परलोक के भोग से विरक्त हैं और जो
नित्य और अनित्य का विवेक रखता है और मोक्ष को चाहनेवाला है वह भी मोक्ष से भय करता है यही आश्चर्य है इत्यादि।
                                               
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                         मात्र क्या जानना पर्याप्त है ?

                         
                                               सृष्टि के पूर्व में (वह) मैंही मैंथा। मैंके अतिरिक्त न
स्थूल, न सूक्ष्म और न दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं हैवहां मैं’ ही मैं’ है;

                                                                                                                                                                                           (27)

 और सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है वह भी मैंही मैंहै; और जो कुछ बचा रहेगा; वह भी मैंही है। वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु उस के अतिरिक्त उसमें दो चन्द्रमाओं की तरह मिथ्या प्रतीत हो रही है; अथवा विद्यमान् होने पर भी आकाश मण्डल के नक्षत्रों में राहु की भांति उसकी प्रतीति नहीं होती हैइसे उसकी माया समझनी चाहिये। जैसे प्राणियों में पंचभूत रचित छोटे - बडे़ शरीरों में आकाषादि पञ्चमहाभूत उन शरीरों के कार्यरूप से निर्मित होने के कारण प्रवेष करते भी हैं और पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारण रूप से विद्यमान् रहने के कारण प्रवेष  नहीं भी करते हैं। वैसे ही उन प्राणियों की शरीर की दृष्टि में उनमें आत्मा के रूपमें किये हुए हैं
और आत्म दृष्टि से उससे अतिरिक्त कोई वस्तु न होने के कारएा उन में प्रविष्ट नहीं भी है।
                                   यह ब्रह्म नहीं - यह ब्रह्म नहीं इस प्रकार निषेध पद्धति से और यह
ब्रह्म है - यह ब्रह्म है अन्वय पद्धति से यही सिद्ध होता है कि सर्व शक्ति-मान्, सर्वातीत, सर्वस्वरूप ‘‘वह’’ ही सदा, सर्वदा और सर्वत्र स्थित है ‘‘वह’’ ही वास्तविक ‘‘तत्त्व’’ है। जो आत्मा और परमात्मा के तत्त्व को जानना चाहते हैं; उन्हें केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है। ऐसा आदि ‘‘मैं’’ का ठोस सिद्धान्त है।
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                            चार पुरूषार्थ


                                                          मनुष्य जीवन में कल्याण हेतु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ बताये गये हैं। ये चारों उपसर्ग और प्रत्यय से भिन्न निरपेक्ष स्थान रखते हैं।
                                    1)  धर्म --- धर्म धृधातु से बना है; जिसका अर्थ होता है धारण
करना। अर्थात् जो धारण करने योग्य है वही धर्म है। (व्यक्ति, वस्तु और स्थान से बना) जगत् में कुछ भी  धारण करने योग्य नहीं है। क्योंकि ये सब विकार युक्त तथा नश्वर हैं। नश्वर होने से शरीर स्वयं भी धारण करने योग्य नहीं है। अतः धारण करने योग्य कोई नहीं हो सकता; वरन् वही हो सकता है जिस ने स्वयं इस शरीर को धारण कर रखा है।


                                                          (28)

     
जब उसने स्वयं धारण कर रखा है तो कोई उसे कैसे धारण करे ? और धर्मात्मा बने। धारण करनेवाला वहस्वयं धारण करने योग्य होकर स्वयं ही धर्म है। हम केवल उस के भाव में भावित हो सकते हैं। और यदि ऐसा न भी हो तो भी वह धर्म है। लोग उस धारण कर्ता को भूल करस्वयं को धारण किये गये का (धारण) कर्ता मान कर उस निरपेक्ष को सापेक्ष में ला कर नश्वर वस्तु को धारण करनेवाला बनाकर उपसर्ग और
प्रत्यय से युक्त कर देते हैं। यही कारण है कि वही --- धर्म, अधर्मविधर्म, उपधर्म, छलधर्म तथा धर्माभाष (षट्धर्म) हो जाता है। यथार्थ में धर्म निरपेक्ष था और है।
                                      2)  अर्थ -- (= अभिप्राय युक्त) का प्रयोग सामान्यतः मूल्य तथा भाव में जाता है। यह भी निरपेक्ष शब्द है। जब वहधारण करने योग्य जागतिक वस्तु जब उस धारण कर्ता के अत्यधिक निकट होती है अर्थात् उसका बोध कराने में बहुत हद तक समर्थ हो जाती है तब उस जागतिक विषय वस्तु को; जिसमें अपना मूल्य, भाव या अभिप्राय है; सार्थक (+अर्थ) कहते हैं। इस के विपरीत वह निरर्थक (नि+अर्थ) हो जाता है। सकारात्मक और नकारात्मक पहलू न हो तो मात्र अर्थ का कोई अर्थ नहीं होता। अतः धर्म की भांति अर्थ भी निरपेक्ष है।
                                     3)  काम --- घारण करनेवाले की हलचल से जो कुछ भी हो रहा है वह काम ( कर्म ) है। जब वहजागतिक वस्तु में दृढ़मूल हो जाता है तब वह हलचल सकाम कही जाती है। जब व्यक्ति द्वारा धारण कर्ता के गुरुत्व को स्वीकार कर फल की इच्छा से सर्वथा रहित हो जाता है तब वह हलचल (काम) निष्काम बन जाती है। जगत् में होनेवाली हलचल दो प्रकार की होगीं --- सकाम या निष्काम। धारण कर्ता का दोनों से कोई मतलब नहीं होता; क्योंकि यह सकारात्मक और नकारात्मक जागतिक पदार्थ में दृढ़ आत्ममूल और निषेध वृत्ति होने से हुआ है। अतः यहां काम भी धर्म और अर्थ की तरह निरपेक्ष है।
                             4)  मोक्ष -- मोक्ष शब्द का अर्थ होता है मुक्ति। इस शब्द में उपसर्गादि
का प्रयोग न होने से किसी बिषय-वस्तु से मुक्ति न मानकर समस्त बन्धनों से मुक्ति मानना होगा; क्योंकि मुक्ति शब्द बन्धन का विलोम है। 'वह' धारण करने वाला एक समय पदार्थ में अपने आप को हठात् आत्म समर्पण (आत्म भाव उत्पन्न) कर बन्धन की

                                                          (29)

उत्पत्ति करता है; किन्तु दूसरे क्षण उस बन्धन को छिन्न-भिन्न कर उसी पूर्ववत् स्थिति को कायम रहने देने का संकल्प लेता है। यही मुक्ति है। यहां भग्न श्रृंखलाओं को प्रत्यक्ष रूप में देखना; उसके छिन्न-भिन्न करनेवाली प्रयास और उस प्रयास की निरन्तरता के महत्व को समझना आवष्यक है। इस प्रकार मुक्ति भी धर्मअर्थ, और काम की भांति निरपेक्ष है।
                                                                        इस प्रकार चारों पुरुषार्थों में मात्र एक के सम्यक् परिचय होने से चारों समझ में आ जाते हैं; ये चारों स्वतन्त्र होते हुए भी आश्रय
के नाम से जुड़कर ही प्रकाशित होते हैं। वहजो है जिसके लिए ये चार शब्द प्रयुक्त होते हैं वहनिरपेक्ष होने से आरोपित शब्द की तरह वे स्वतः प्रत्यक्ष होते हैं।  
             

              गुरु के प्रकार    
             

                                                इस जगत् में सृष्टि चक्र का गुरुत्व अनायास ही सिद्ध है।
जिसके कारण समय-समय पर मन गुरु, शरीर गुरु, बुद्धि गुरु, आत्मा गुरु और स्थायी रुप से जगत् गुरु परमात्मा है तथा प्राचीन कालसे ही आठ स्तर के गुरु के प्रकार देखनें में आये हैं जो श्रेष्ठता क्रम से निम्नखित है:-
   1) दिग्भ्रमित तथा गुमराह गुरु।
   2) समाज में स्थित अपराधीबर्ग से लेकर नेताबर्ग तक का अपना-अपना  गुरुत्व।
   3) शिक्षक - प्रशिक्षक।
   4) धार्मिक संस्कार सम्पन्न करानेवाला गुरु।
   5) परमार्थ की ओर प्रेरित करनेवाला कोई जीवित व्यक्ति या प्रतिमा के रूपमें गुजरे हुए     लोग।        
   6) चार आश्रम तथा सम्बंधित सम्प्रदाय की ओट में स्वच्छन्द विचरण
        करने वालों के लिए वेद-षास्त्र तथा सम्बंधित सद्ग्रन्थ  -  गुरु।

                                                         (30)



   7)  प्राचीन कालके सु-प्रसिद्ध धर्म-प्रचारकों की गद्दी से चिपके गुरु -   सद्गुरु तथा            जगत्गुरु।
   8)  आधुनिक काल के टुटपुंजिये गुरु से लेकर भगवानबने हुएबनकर बिगड़े हुए तथा      बनने की होड़ में लगे हुए जिन्दे-मुर्दे, गुरु, सद् - गुरु तथा भगवान जी लोग।
                                                   किन्तु आत्म कल्याण की ओर अग्रसर जिज्ञासु बन्धुओं
के लिए गुरु के प्रकार कुछ भिन्न है। ऐसे गुरुजनों की संख्या उत्तरोत्तर श्रेष्ठता क्रम से नौ प्रकार के हैं। जिनका नाम क्रमषः अधो-लिखित हैं:-
1 - शासक गुरु, 2 - माता-पिता गुरु, 3 - कुल गुरु, 4 - सद्ग्रंन्थ गुरु, 5 - लोक-विद्या गुरु, 6 -       दार्शिनक गुरु, 7 - आध्यात्मिक गुरु, 8 - ब्रह्मवेत्ता गुरु, 9 - तत्त्ववेत्ता गुरु।
              ---------------------------------------------------------------------------------

  समस्त ग्रन्थों में प्रयुक्त गुरुजनों के प्रकार समूह।
            (क)                    (ख)
   1 - शरीर गुरु                        1 - सांसारिक गुरु
   2 - मन गुरु                         2 - शिक्षक गुरु
   3 - बुद्धि गुरु                         3 - प्रशिक्षक गुरु
   4 - आत्मा गुरू                       4 - दार्शनिक गुरु
   5 - जगद्गुरु परमात्मा                   5 - योगी गुरु
   6 - अवतारी गुरु
                                             (ग)
      1 - स्थूल गुरु,  2 - सूक्ष्म गुरु,  3 - कारण गुरु,  4 - महाकारण गुरु

                                                      (31)
     
       (घ)                         (ङ)
  1 - राहबर गुरु                             1 - समय गुरु
  2 - आत्मवेत्ता गुरु                          2 - प्रतीक गुरु
  3 - ब्रह्मवेत्ता गुरु                            3 - एक गुरु
  4 - सद्गुरु                                  4 - परिस्थिति गुरु
  5 - कर्म गुरु                                6 - स्वप्न गुरु
 7 - सुषुप्त गुरु                               8 - काल गुरु

       (च)                           (छ)
  1- माता-पिता गुरु                            1 - प्रकृति गुरु
  2 - शासक गुरु                               2 - चन्द्र गुरु
  3 - नेता गुरु                                 3 - सूर्य गुरु
  4 - राजा गुरु                                 4 - पृथ्वी गुरु
  5 - स्वशुर गुरु                                5 - अन्न गुरु
  6 - अभ्यागत गुरु                              6 - जल गुरु
  7 - भतीजा गुरु                                7 -अग्नि गुरु
  8 - स्त्री गुरु                                    8 -वायु गुरु
  9 - वृद्ध गुरु                                    9 - आकाश  गुरु
  10 - ब्राह्मण गुरु
  11 - संन्यासी गुरु

           
                                                            (32)


       (ज)                             (झ)
  1 - ब्रह्मा गुरु                                    1 - अध्यापक गुरु
  2 - विष्णु गुरु                                   2 - श्रोत्रिय गुरु
  3 - महेश गुरु                                    3 - आचार्य गुरु
  4 - सुर गुरु                                      4- लोक विद्या गुरु    
  5 - अविद्या गुरु                                   6 - जाग्रत गुरु
   7 - ज्ञानदाता गुरु          
                                   (ञ)        
  1 - सुरासुर गुरु      2 - देवासुर गुरु      
  3 - असुर गुरु       4 - त्रिदेव गुरु
  5 - त्रिलोक गुरु                                                
                  (ट)
 1 - तान्त्रिक गुरु           2 - मान्त्रिक गुरु
 3 - अघोरी गुरु             4 - प्रेत गुरु
 5 - अनेक गुरु
                                                (ठ) 
  1 - प्राचीन गुरु     2 - विद्या गुरु      3 - परमार्थी गुरु         4 - निर्द्वंद गुरु
  5 - त्यागी गुरु      6 - सदाचारी गुरु
                  (ड)                 
 1 - परोपकारी गुरु        2 - गुरुओं का गुरु
  3 - आध्यात्मिक गुरु      4 - चैतन्य गुरु
  5 - अभयदाता गुरु        6 - सदाचारी गुरु                

                                                                                 
                                                          (33)


  
            (ढ)                        (ण)
  1 - शिशु गुरु                               1 - भगवान गुरु
  2 - अबोध गुरु                              2 - आदि गुरु
  3 - अन्धा गुरु                              3 - परम गुरु
  4 - मूढ़ गुरु                                4 - पूर्ण गुरु
  5 - विचित्र गुरु                              5 - अविनाशी गुरु  
  6 - अद्भुत गुरु                               6 - प्रभु गुरु
  7 - गूढ़ गुरु                                 7 - नारायण गुरु
  8 - अपूर्ण गुरु                               8 - श्रीकृष्ण गुरु
  9 - गुरुपुत्र गुरु                               9 - रामतत्त्व गुरु
                                (त)
  1 - अहंकारी गुरु          2 - पलित गुरु
  3 - दलित गुरु            4 - दिग्भ्रमित गुरु
  5 - गुमराह गुरु           6 - द्वन्द्वमय गुरु
  7 - लोभी गुरु             8 - अधर्मी गुरु      
  9 - भोगी गुरु             10 - अवसरवादी गुरु
  11 - परिस्थितिजन्य गुरु    12 - गुरु-बहन
  13 - गुरु-भाई             14- गुरुडम
 15 - गुरु घण्टाल
       ----------------------------------------------------------------------

                                                          (34)



A         A                                                           B
    Educator                                                                   Guru
    Moniter                                                                  Inspirer 
   Tutor                                                                           Guide
   Trainor                                                                  Clargy Man
   Instructor                                                                 Minister
   Teacher                                                                        Patron
   Beacon                                                                          Doctor 
   Mentor                                                                  Trend Settor
   Lecturer                                                                  Precesetter
   Professor                                                                Forerunner
   Revered                                                                   Counsellor 
   Master                                                                          Advisor
   Coach                                                                         Suggestor
   Pedagouge
                                                           C
 Prophet               Perfect Master              Pioneer
 Pundit                  Boss                       Commonder    
 Leader                  Sooth sayer

                                                       
                                                          (35)


                              उपदेश के अधिकारी
                                         ज्ञान का उपदेश करने की परम्परा कल्प-कल्पान्तर से चली आ रही है। यह कोई नई बात नहीं है। इस परम रहस्यमय ज्ञान का उपदेश किसे दिया जाय और किसे नहींऐसी जिज्ञासा होने पर पूर्व काल में बेद के अंन्तिम भाग उपनिषदों में भली-भांति वर्णन हुआ जो इस प्रकार प्रस्तुत है: -
                                            --------------  ‘‘जिसका अन्तःकरण विषय - वासना से शून्य
होकर सर्वथा शान्त न हो गया हो; ऐसे मनुष्य को इस रहस्य का उपदेश नहीं देना चाहिये तथा जो अपना पुत्र न हो अथवा शिष्य न हो उसे भी नहीं देनी चाहिये  भाव यह है कि या तो सर्वथा षान्त चित्त का होऐसे अधिकारी को ज्ञान का उपदेश देना चाहिये क्योंकि पुत्र या शिष्य को अधिकारी बनाना पिता या गुरु का ही काम है। अतः पहले से ही
अधिकारी  हो यह नियम नहीं है।’’ -- ( आवरण पृष्ठ - 2 से )
                                इस के अतिरिक्त देष, काल, अवस्थाप्रयोजन, व्यक्ति तथा भाव को देखते हुए जिज्ञासा के स्तर, सामर्थ्य आदि को ध्यान में रखते हुए जो जिस विद्या के प्रति उत्कट लगाव रखता है उस के लिए उपदेश देने की परम्परा धीरे- धीरे विकसित होती जा रही है। यह विकास गुरु-शिष्य परम्परा को कायम तो रखता है किन्तु ज्ञान का लोप करते जाता है। मात्र अवतार पुरुष में किसी नियम एवं परम्परा का प्रभाव नहीं देखा जाता।

                     
                                                    (36)

                                       आधारशीला


             
                                  /




                             द्वित्तीय          





                                                    (37)

                                       मुमुक्षु के प्रश्न

                                   
                                            यम क्या है ?
           
                      ‘यमबारह हैं। --------- अहिंसा, सत्यअस्तेय (चोरी न करना), असंगता, लज्जा, असंचय (आवश्यकता से अधिक धन आदि न जोड़ना), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता,क्षमा और अभय।

                                           नियम क्या है ?
           
                          ‘नियमोंकी संख्या भी बारह ही हैं। यथा -------- शौच (बाहरी और भीतरी पवित्रता = 2), जप, तप, हवनश्रद्धा, अतिथि सेवा, भगवान् की पूजा, तीर्थ यात्रा, परोपकार की चेष्टा, सन्तोष और गुरु सेवा।

                                          शम, दम क्या है ?
             
                           बुद्धि का भगवान् में लग जाना ही शमहै। इन्द्रियों के संयम का नाम दमहै।

                                       तितिक्षा किसे कहते है ?
                 
                         न्याय से प्राप्त दुःख का नाम ‘‘ तितिक्षा ‘‘ है।
             
                                    धैर्य, दान, और तप क्या है ?
             
                         जिह्वा और जननेन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना ‘‘ धैर्य ‘‘ है। किसी से द्रोह न करना सबको अभय देना ‘‘ दान ‘‘ है। कामनाओं का त्याग करना ही ‘‘ तप ‘‘ है।

                                                       (38)

                             शूरता, सत्य, और ऋत किसे कहते हैं ?

                  अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त करना ही ‘‘ शूरता है। सर्वत्र सम स्वरूप आत्मा का दर्शन ही ‘‘ सत्य "  है। इसी प्रकार सत्य और मधुर भाषण को ही महात्माओं ने ‘‘ ऋत ‘‘ कहा है।

                                 शौच, संन्यास, और धन क्या है ?
                 
                   कर्मों में आसक्त न होना ही ‘‘ शौ’’ है। वासनानाओं का त्याग ही सच्चा ‘‘ संन्यास ‘‘ है। धर्म ही मनुष्य का अभीष्ट ‘‘ धन " है।

                                       यज्ञ, दक्षिणा और बल क्या है ?
                     
                     परमेश्वर ही ‘‘ यज्ञ ‘‘ है। ज्ञान का उपदेश देना ही ‘‘ दक्षिणा ‘‘ है। प्राणायाम ही श्रेष्ठ ‘‘ बल ‘‘ है।

                                          लाभ, भग और विद्या क्या है ?
                 
                   भगवान की भक्ति ही उत्तम ‘‘ लाभ ‘‘ है। भगवान् का ऐश्वर्य ही ‘‘ भग ‘‘ है। सच्ची विद्या वही है जिससे ब्रह्म और आत्मा का भेद मिट जाता है।

                                     लज्जा और सच्चा सौन्दर्य क्या है ?
                                 
                 पाप से घ्रृणा होने का नाम ही ‘‘ लज्जा ‘‘ है। निरपेक्षता आदि गुण ही शरीर का ‘‘ सच्चा सौन्दर्य ‘‘ --- ‘‘ श्री ‘‘ है।

                                       सुख और दुःख किसे कहते हैं ?
                   
             सुख और दुःख दोनों ही भावना सदा के लिए नष्ट हो जाना ही ‘‘ सुख ‘‘ है। विषय भोगों की कामना/फलेच्छा ही ‘‘ दुःख ‘‘ है।

                                                          (39)


                                   पण्डित और मूर्ख किसे कहते हैं ?
                 
                    जो बन्धन और मोक्ष तत्त्व को जानता है वही ‘‘ पण्डित ‘‘ है। शरीर आदि में जिसका मैं-पन है वही ‘‘ मूर्ख ‘‘ है।    
   
                           सुमार्ग - कुमार्ग तथा स्वर्ग - नरक क्या है ?
                     
                        जो संसार की ओर से निवृत करके भगवान् की प्राप्ति करा देता है वही सच्चा ‘‘ सुमार्ग " है। चित्त की बहिर्मुखता ही ‘‘ कुमार्ग ‘‘ है। सत्त्वगुण की बृद्धि ‘‘ स्वर्ग ‘‘ तथा ‘‘ तमोगुण " की वृद्धि ‘‘ नरक है। सच्चा भाई बन्धु तथा सच्चा घर किसे कहते है ? गुरु ही सच्चा ‘‘ भाई -- बन्धु " है तथा मनुष्य का शरीर ही ‘‘ सच्चा घर " है।
     
                                      धनी, दरिद्र तथा कृपण कौन है ?
                 
                                  सच्चा ‘‘ धनी ‘‘ वह है जो गुणों से सम्पन्न है, जिसके पास गुणों का खजाना है। जिसके चित्त में असन्तोष है, वही ‘‘ दरिद्र ‘‘ है। जो जितेन्द्रिय नहीं है, वही ‘‘ कृपण ‘‘ है।

                                 समर्थ -- असमर्थ की क्या पहचान है ?
         
            ‘‘ समर्थ ‘‘ स्वतन्त्र और ईश्वर (पूजनीय) वह है, जिसकी चित्तवृत्ति विषयों में आसक्त  नहीं है। इसके विपरीत जो विषयों में आसक्त है, वही सर्वथा ‘‘ असमर्थ ‘‘ है।

                                      दोष तथा गुण किसे कहते हैं ?

                                                          (40)
               
                 गुण और दोषों के अलग - अलग लक्षण अनेक हैं किन्तु सबका सारांष यह है कि गुणों और दोषों पर दृष्टि जाना ही सबसे बडा दोष है और गुण -- दोषों पर दृष्टि न जाकर अपने शान्त निः- संकल्प स्वरूप में स्थित रहे -- वही सबसे बड़ा गुण है।

                               निन्दा -- प्रसंसा का क्या परिणाम होता है ?

                          जो व्यक्ति किसी व्यक्ति अथवा बस्तु की प्रसंसा अथवा निन्दा करते हैं वे शीघ्र ही अपने परमार्थ साधन से च्युत हो जाते हैं; क्यों कि साधन तो द्वैत के अभिनिवेष (दृढ़ मनोयोग) का -- उसके प्रति सत्यतत्त्व बुद्धिका निषेध करता है और प्रसंसा अथवा निन्दा उसके सत्यता के सत्यत्त्व बुद्धिका निषेध करता है और प्रसंसा अथवा निन्दा उसके
सत्यता के भ्रम को और अधिक दृढ़ करता है। अतः निन्दा अथवा प्रसंसा से परे स्वयं को रखना ही कल्याणकारी है।
                                              क्षमा का स्वरूप कैसा है ?
                     
             इस जगत् में क्षमा वशीकरणरूप है। भला क्षमा से क्या सिद्ध नहीं होता ? जिसके हाथ में क्षमा तथा शान्तिरूपी तलवार है, उसका दुष्ट पुरुष क्या कर लेगें ? क्षमा हीन पुरुष अपने को तथा दूसरे को भी दोष का भागी बना लेता है। क्षमाषील पुरूष में एक ही दोष का आरोप होता है, दूसरे की तो सम्भावना ही नहीं है। वह दोष है --- असमर्थता।  किन्तु क्षमाशील पुरूष का वह दोष नहीं मानना चाहिए; क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण तथा समर्थों का भूषण है।


                                 शील क्या है और इसके क्या लाभ है ?
                 
                         स्वयं के कल्याण तथा लोक हित के साधनों में जो सर्वोत्कृष्ट शोभावर्धक साधन तथा आभूषण है वह ‘‘ शील ‘‘ है। शील-वान व्यक्ति के लिए कोई भी कार्य दुर्लभ या दुःसाध्य नहीं होता है। वह सब कुछ प्राप्त करने में समर्थ होता है।उसे अग्नि जैसे दाहक पदार्थ जल के समान शीतल लगने लगता है। अति दुस्तर समुद्र भी एक छोटी सी
नहर जैसा प्रतीत होता है। अति उन्नत सुमेरु पर्बत भी एक छोटी शिला जैसा जान 


                                                       (41)

 पड़ता है। सिंह भी मृग के समान जीव बन जाता है। भीषण सर्प भी पुष्पमाला के समान और विषरस भी अमृत की धारा के समान सुखकारी बनजाता है। अतः सभी दुर्लभ और दुस्तर पदार्थ ‘‘ शीलवान् ‘‘  के लिए अति सरल हो जाता है।

                           मनुष्य का महान् शत्रु तथा मित्र कौन है ?
               
                 आलस्य मनुष्य का महान् ‘‘ त्रु ‘‘ हैै क्योंकि यह मनुष्य के शरीर में रहता है और अप्रत्यक्ष होने से इस को जीतना कठिन होता है। उद्योग या उद्यम के समान दूसरा कोई मित्र नहीं होता; क्योंकि उद्यमी व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होता।

       भवसागर पार होने की योग्यता कब आती है ?

                    जिस मनुष्य का चित्त कामिनी के कटाक्ष रूपी बाणों से घायल नहीं होता है, जिसे क्रोधाग्नि की लपटें नहीं जलाती है और जिसे अनेक प्रकार के भोग्य पदार्थ लोभरूपी जाल में नहीं फँसाते हैं वही धैर्यवान् जिज्ञासु पुरुष इस भव सागर को पार करने के लिए योग्य होता है।
                                               मनुष्य के प्रकार
                     
                           मनुष्य चार प्रकार के बताये जाते हैं ---- जो स्वार्थ छोड़ कर परमार्थ साधन और परोपकार में लगे रहते हैं, वे उत्तम कोटि के मनुष्य हैं। जो स्वार्थ के साथ-साथ परमार्थ-साधन में संलग्न रहते हैं, वे मध्यम कोटि और जो स्वार्थ के लिए परमार्थ का त्याग करते हैं तथा दूसरों के हितों को नष्ट करते हैं; वे अधम कोटि के अर्थात् नीच होते हैं। इनके अतिरिक्त वे लोग भी हैं जो निरर्थक ही कार्य-विघातक होते हैं। ऐसे लोगों को अधमाधम या निकृष्टतम मानना चाहिए।

                                   मात्र गुरू से ही पूर्ण ज्ञान सम्भव है ?
                     
                                                   अकेले गुरु से ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता; उसके लिए षिष्य को भी बहुत कुछ सोचने समझने की आवष्यकता है। ऋषियों ने एक ही अद्वितीय ब्रह्म का अनेक प्रकार से निरूपण किया है। देकालअवस्थाप्रयोजनव्यक्ति 

                                                            (42)

तथा भाव की प्रतीति से हर ज्ञानवान पुरूष ने तत्त्व निरूपण में भेद खड़़ा किया है। अतः जिज्ञासुजन प्रतीतियों की सत्यता से परे तत्त्व का वास्तविक स्वरूप बिना स्वयं के पुरूषार्थ के कैसे धारण कर सकेगें ?                                
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           ज्ञान प्रवीण सन्त अपने ज्ञान का बोध दूसरे की मन - बुद्धि का विषय तथा बोध का विषय बनाते समय किन-किन बातों का ध्यान रखता है ?
               
              ज्ञान प्रवीण वक्तासन्त वाणी और बुद्धि को दुषित करने वाले दोषों को त्याग कर गुणों से युक्त युक्ति संगत वाक्य का प्रयोग करता है। उस वाक्य में सौक्ष्म्य, सांख्य, क्रम, निर्णय और प्रयोजन ये पाँच प्रकार के आधार अवश्य होते हैं।
   सौक्ष्म्य --- जहाँ विभिन्न ज्ञेय ( अर्थ ) उपस्थित हों और ‘‘ यह घट है, यह पट है ‘‘ इस प्रकार वस्तुओं का पृथक्-पृथक् ज्ञान होता हो, ऐसे स्थलों में यथार्थ निर्णय करनेवाली जो बुद्धि है उसी का नाम सौक्ष्म्य है।
   सांख्य --- जहां किसी विशेष अर्थ को अभीष्ट मानकर उनके दोषों और गुणों की विभागपूर्ण गणना की जाती है, उस अर्थ को संख्या अथवा सांख्य समझना चाहिए।
   क्रम --- परिगणित गुणों और दोषों में अमुक गुण या दोष को पहले कहना चाहिए और अमुक को पीछे कहना अभीष्ट है; इस प्रकार जो पूर्व के क्रम का विचार होता है; उसका नाम क्रम है और जिस वाक्य में ऐसा क्रम हो; उस वाक्य को वाक्यवेत्ता विद्वान क्रमयुक्त कहते हैं।
   निर्णय --- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के विषय में एक का विशेष रूप से प्रतिपादन कर के प्रवचन में अन्त में ‘‘यही अभीष्ट विषय है ’’ ऐसा कहकर जो सिद्धान्त स्थिर किया जाता है; उसी का नाम निर्णय है।

                                                             (43)

   प्रयोजन --- इच्छा तथा द्वेष से उत्पन्न हुए दुःखों में जहां किसी एक प्रकार के दुःख की प्रधानता हो जाय; वहां जिस वृत्ति का उदय होता है; उसी को प्रयोजन कहते हैं। वक्ताश्रोता और वाक्य -- तीनों अविकल भाव से समस्थिति में आते हैं; तब वक्ता का कहा हुआ अर्थ प्रकाशित होता है एवं समझ में आता है आदि।

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                              विद्या का परिचय
              प्राचीन काल से ही विद्या के प्रति ऊंची धारणा रही है। यह एक सार्वकालिक सार्वभौम सत्य है। अतः ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है।
                 भारतीय इतिहास में 14 विद्याएँ और 64 कलाएँ शिक्षणीय बताई गयी है। 4 वेद, 6 अंग, 108 उपनिषद्, 18 महापुराण, ब्राह्मण ग्रन्थआरण्यक ग्रन्थ, सूत्र ग्रंन्थ, स्मृतियाँ, षड़् दर्षन, रामायण, महाभारत, बौद्ध - जैन साहित्य आदि। ये सब विद्याओं के आधार, श्रोत एवं भण्डार है। इन में दो प्रकार की विद्याओं का समावेष है। (1) संसार से अभ्युदय दिलाने वाली विद्या ‘‘ अपरा ’’ विद्या है। (2) भव सागर से मोक्ष दिलाकर सायुज्य गति को प्राप्त कराने वाली विद्या ‘‘ परा ’’ है (छान्दोग्य उपनिषद् - 1/7/1-5, 7/ 1/105 )। मनुष्य अविद्या (अपरा) के द्वारा मृत्यु को पार कर विद्या (अपरा) के द्वारा अमृतत्त्व की प्राप्ति कर लेता है  (यजुर्वेद - 40/11)
              विद्या को श्रेय भी कहा गया है, जो अध्यात्म मार्ग है। इससे जन्म मृत्यु बन्धन कट जाता है (कठोपनिषद् - 1/2/1-2) है। दूसरी ओर अविद्या (प्रेय) है; जिसको प्राप्त करने से मनुष्य न इस तो लोक में सुखी होता है न परलोक में ही ( मुण्डक उपनिषद - 1/2/8-10; गीता - 9/20-21 )। इस प्रकार ‘‘परा विद्या‘‘ ईश्वर की अनुभूति कराती है और ‘‘अपरा विद्या’’ भौतिक तथा लौकिक विषयों का ज्ञान कराती है। अविद्या भौतिक भोगों का पर्याय है; पतन का कारण है तथा इसका नाम माया भी है। जो क्षणिक भोगों से सम्बन्धित है।
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                                                          (44)

    विभिन्न विषयान्तर्गत गुरू/शिष्य के कुछ उदाहरण
               
                                          (1) श्रुति परम्परा अन्तर्गत

     गुरु                              शिष्य
         
   व्यास                   ----                      जैमिनी
   जैमिनी                  ----                       सुकर्मा
   सुकर्मा                   ----                  1 - हिरण्यनाभ 2 – पौष्यन्जील
                                                          
     1 – अवन्त्य
     2 - पौष्यन्जील            ----                    500 - शिष्य
     3 - हिरण्यनाभ            ----                      कृतवेद

                                             सहस्त्रनामस्तवराज
       
       गुरु                              शिष्य
     
         महेश्वर                ----                       ब्रह्मा
         ब्रह्मा                  ----                       मृत्यु
         मृत्यु                  ----                    एकादस रूद्र
                        तदुपरान्त इसी क्रम से .......................तुण्डि, शुक्र, गौतम, वैवश्वत मनु, नारायण साध्यदेव, यम, नचिकेता, मार्कण्डेय आदि।
                        
                           (2) गुरु - कुल/गुरु के सान्निध्य में

                                  (क) वेदादि ग्रन्थों का ज्ञान
         गुरु                                      शिष्य
       सन्दीपनी                    ----               श्री कृष्ण
       देवशर्मा                     ----                 विपुल

                                                       (45)

       विश्वामित्र                    ----                गालव
       कहोड                        ----               उद्दालक
       वैषम्पायन                    ----               याज्ञवल्क्य
       सूर्य                         ----                हनुमान
     अयोदधौम्य                    ----              वेद,  उपमन्युआरूणीपान्चाल 
  शुक्र, वषिष्ठ, बृहस्पति             ----               भीष्म

                                                (ख) अस्त्र विद्या
   
      परषुराम                      ----               भीष्म
      बलराम                       ----               दुर्योधन
      नल                          ----               ऋतुपर्णा
     कृप, द्रोण, परषुराम               ----               पाण्डव, कर्ण आदि
               
                                      (ग) विषिष्ट विद्या एवं शक्ति

     शुक्र                           ----        कच (मृतसंजीवनी विद्या)          विश्वामित्र                        ----       राम (बला - अतिबला विद्या)        व्यास                           ----       युधिष्ठिर (चाक्षुषी विद्या)      
  सूर्य                             ----       याज्ञवल्क्य (विशिष्ठ वेद विद्या) 
  नारद                            ----       गौरी (शिव जी की प्राप्ति)
    
       (3) प्रकृति प्रदत्त ज्ञान                      (4) ब्रह्म ज्ञान

      गुरु     शिष्य          गुरु                 शिष्य   
     ............        दत्तात्रेय               जड़ भरत         ----       शौवीर नरेश
     ...........        वोध्य ऋषि            कपिल            ----       माता देहूति
     ............      जाबाल पुत्र सत्यकाम     निदाघ           ----        ऋभु
                                                              शुकदेव            ----      राजा परीक्षित
                           
                                                                                               
                                                (46)


                                                      (5) आत्म ज्ञान
 गुरु     शिष्य          गुरु                 शिष्य       यमराज  --- नचिकेता            घेरण्ड ऋषि          ---        चण्डकपाली
   वरूण  ---  भृगु               याज्ञवल्क्य            ---         मैत्रेयी
   श्वेतकेतु --- सुबर्चला             अष्टावक्र              ---      राजा जनक
                                                      (6) तत्त्व ज्ञान

  श्री विष्णु  -- गरूड़़, प्रहलाद
 श्री राम    -- सती. सबरी, हनुमान आदि
  श्री कृष्ण -- यसोदा, अर्जुन, उत्तंक आदि।                        
                           
       (7) अतिरिक्त शिक्षा                      (8) आत्म बोधात्मक संवाद


  गुरु      शिष्य          गुरु                 शिष्य

   दुर्वासा --- कुन्ती (अथर्व वेद)         सुत             ---          जनमेजय
   उर्वशी --- अर्जुन (गन्धर्व वेद)        वैषम्पायन        --           जनमेजय
   बृहन्नला(अर्जुन)-उत्तरा (गन्धर्व वेद)    शुकदेव           --            व्यास
                                                              बोध्य            ---            ययाति
    (8) तत्त्व ज्ञान से सम्बंन्धित       वामदेव           ---           बसुमना
                               लोमश           ---         काक भुषुण्डी                                   जैमीनि           ---          याज्ञवल्क्य
     काक भुषुण्डी -- गरूड़            जनक           ---        सुलभाशुकदेव
     वाल्मीकि -- लवकुश              सुवर्णमय हंस     ---          साध्यगण
     मतंग   --  सबरी                वसिष्ठविश्वामित्र    ---           श्री राम
     नारद  --   सनत्कुमार            व्यासभीष्म       ---           युधिष्ठिर
                                 अंगिरासूत जी      ---  शौनक आदि ऋषिगण।
                                                            

               
                  ----------------------------------------------------------------
                                            ब्रह्म के प्रकार
                                                    सद्ग्रन्थों में परब्रह्म (एकदेशीय एवं विराट स्वरूप) से हटकर मात्र ‘‘ब्रह्म’’ ( सर्वदेशीय जड़ - चेतन स्वरूप एवं विराट आत्मा ) के क्रमशः 22                            
                                                              (47)

प्रकार बताये गये हैं। परब्रह्म का सम्यक् ज्ञान हेतु ये सभी बाईस प्रकार के ब्रह्म को क्रमशः जानना - समझना अवश्यक होता है। यथा --------------------- 
1) नाम, 2) वाणी, 3) मन, 4) संकल्प, 5) चित्त, 6) ध्यान,  7) विज्ञान ( विषिष्ट ज्ञान ), 8) बल, 9) अन्न, 10) जल, 11) तेज, 12) आकाश, 13) स्मरण, 14) आशा, 15) प्राण, 16) सत्य, 17) विज्ञान (अतिन्द्रिय ज्ञान) , 18) श्रद्धा, 19) निष्ठा, 20) कृति, 21) सुख, 22) भूमा ( आत्मा )।

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                    वैराग्य किस प्रकार प्राप्त होता है ?

                                वास्तविक वैराग्य बारंबार सत्संग सुनने से ही होता है। सत्यनिष्ठ व्यक्ति या सत्संग प्रेमियों को सम्वेगात्मक आघात से भी  वैराग्य होता हुआ देखा गया है। व्यक्ति जब सत्संग सुनने के लिए शरीर को माध्यम बनाता है तब स्वयमेव यह शरीर गुरु बनकर विवेक और वैराग्य की शिक्षा देता है। सुख - दुःख का आधार शरीर होने के कारण तत्त्व विचारक को वैराग्य धारण करने में यह शरीर पूरा-पूरा सहयोग करता है मनुष्य असंख्य वासनाओं में फँस कर स्त्री, पुत्र, घर-द्वार, बन्धु-बान्धव आदि का विस्तार करते हुए उनका पालन-पोषण में लगा हुआ है। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ सहकर धन संचय
 करता है। आयुष्य पूरी होने पर यह शरीर स्वयं तो नष्ट होता ही है; बृक्षके समान दूसरे शरीर के लिए बीज बोकर  उसके लिए भविष्य के लिए भी दुःख की व्यवस्था कर जाता है।
                         वैराग्य को प्राप्त होने वाला व्यक्ति इन्द्रियों और उससे संम्बन्धित विषयों के बीच खिंचाव का संघर्ष देखता है तथा यह जगत् ‘‘ चित्त्त का विलास है ’’ ------- इस तथ्य को समझते - समझते पूरी तरह समझ लेता है।
                     
                                                            (48)

    जीव, जगत, और सुख के द्वन्द्व का समाधान 
                     
                               यदि कर्मों के कर्ता और सुख – दुःखों के भोक्ता जीव का अनेक तथा जगत्, काल, वेद, और आत्माओं को नित्य; साथ ही समस्त पदार्थों की स्थिति प्रवाह रूप से नित्य और यथार्थ स्वीकार करें तथा यह समझें कि घट-पट आदि भेद से उनके अनुसार ज्ञान ही उत्पन्न होता है और बदलता रहता है; तो ऐसे मत के मानने से बड़ा अनर्थ हो जाएगा; क्योंकि इस प्रकार जगत के कर्ता, आत्मा की नित्य सत्ता और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति भी सिद्ध न हो सकेगी। यदि कदाचित् ऐसा स्वीकार भी कर लिया जाए तो देह और संम्बत्सरादि कालावयवों के सम्बन्ध से होने वाली  जीवों के जन्म - मरण आदि अवस्थाएँ भी नित्य होने के कारण दूर न हो सकेगी क्योंकि देहादि पदार्थ और काल की नित्यता स्वीकार करने पर कर्मों का कर्ता तथा सुख- दुःख का भोक्ता जीव परतन्त्र ही दिखाई देता है। यदि वह स्वतन्त्र हो तो बुरा का फल क्यों भोगना चाहेगा ? इस प्रकार सुख-भोग की समस्या सुलझ जानेपर दुःख-भोग की समस्या तो उलझी ही रहेगी। अतः इस मत के अनुसार जीव को कभी मुक्ति या स्वतन्त्रता प्राप्त न हो सकेगी। जब जीव स्वरूपतः परतन्त्र है, विवश है तब तो स्वार्थ या परमार्थ कोई भी उसका सेवन करेगा अर्थात् वह स्वार्थ और परमार्थ दोनों से वंचित हो जायेगा।
                      यदि यह कहा जाय कि जो भलीभांति कर्म करना जानते हैं, वे सुखी रहते हैं और जो नहीं जानते वे उन्हें दुःख भोगना पड़़ता है; तो ऐसा भी कहना ठीक नहीं क्यों कि ऐसा देखा जाता है कि बडे - बडे कर्म कुशल विद्वानों को भी कोई सुख नहीं मिलता और मूढ़ों को भी कभी दुःख से पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग अपनी बुद्धि या कर्म से सुख पाने का घमण्ड करते हैं; उनका वह अभिमान व्यर्थ है।
                   यदि यह स्वीकार कर लिया जाए कि अमुक – अमुक लोग सुख की प्राप्ति और दुःख का नाष का ठीक-ठीक उपाय जानते हैं; तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्हें भी ऐसे उपाय का पता नहीं है; जिससे मृत्यु के ऊपर कोई प्रभाव न डाल सके और वे कभी मरे नहीं। जब मृत्यु उनके सिर पर नाच रही है; तब ऐसी कौन सी भोग सामग्री 

                                                            (49)

या भोग कामना है जो उन्हें सुखी कर सके ? भला जिस मनुष्य को फाँसी पर लटकाने के लिए वध - स्थल पर ले जाया जा रहा है उसे क्या फूल, चन्दन, स्त्री आदि पदार्थ सन्तुष्ट कर सकते हैं ? कदापि नहीं।
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                             अत्मा बद्ध है या मुक्त है ?

                            यह आत्मा बद्ध है या मुक्त; इस प्रकार की व्याख्या परमात्मा के अधीन रहने वाले सत्त्वादि गुणों की उपाधि से ही होता है। वस्तुतः तत्त्व दृष्टि से नहीं। सभी गुण माया-मूलक हैं, इन्द्र - जाल है तथा जादू के खेल  के समान हैं। इसलिए न मोक्ष है, न बन्धन ही है। जैसे स्वप्न बुद्धि का विवर्त है; उसमें बिना हुए ही भासता है; जो मिथ्या है। वैसे ही शोक-मोह, सुख-दुःख, शरीर की उत्पत्ति और मृत्यु ---- यह सब संसार का बखेड़ा (अविद्या) के कारण प्रतीत होने पर भी वास्तविक नहीं हैं।
                      शरीर धारियों को मुक्ति का अनुभव कराने वाली आत्म विद्या और बन्धन का अनुभव कराने वाली अविद्या ये दोनों ही परमात्मा की अनादि शक्तियाँ हैं। माया से ही इनकी रचना हुई है। इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है।
                जीव तो एक ही है। वह व्यवहार के लिए ही परमात्मा के अंश रूप में कल्पित हुआ है; वस्तुतः परमात्मा का स्वरूप ही है। आत्म - ज्ञान से सम्पन्न होने पर उसे मुक्त कहते हैं और आत्मा का ज्ञान न होने से बद्ध। यह अज्ञान अनादि होने से बन्धन भी अनादि कहलाता है।

                   बन्धन और मुक्ति परस्पर क्या है ?

                                 जब चित्त कुछ चाहता है, कुछ सोचता है, कुछ  त्याग करता है, कुछ ग्रहण करता है, जब सुखी और दुःखी होता है ----- तब बन्धन है। जब मन न चाह करता है, न सोचता है, न त्याग करता है, न ग्रहण करता है, न सुखी होता है न दुःखी होता है --- तभी मुक्ति (मोक्ष) है। जब चित्त किसी दृष्टि अथवा विषय में लगा है तब बन्धन है और चित्त जब सब दृष्टियों से अनासक्त है तब मोक्ष है। जब तक ‘‘मैं’’ है तब तक बन्धन है। जब ‘‘मैं’’ नहीं है तब ‘‘मोक्ष’’ है। जब पञ्चभूत विकारों (देह, इन्द्रिय आदि) को
  
                                                          (50)

यथार्थतः पञ्चभूत विकार मात्र देखने पर उसी क्षण बन्धन से मुक्त हो कर द्रष्टा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। बट बृक्ष के जड़ों के समान असंख्य जड़ोंवाली वासना ही संसार का बन्धन है और इसका त्याग (अभाव) ही मुक्ति है।

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     किस भाव से मोक्ष की स्थिति प्रकाशित होती है ?

                        मुझ से ही संसार उत्पन्न हुआ है जैसे समुद्र में बुल-बुला। दृष्यमान् जगत् प्रत्यक्ष होता हुआ भी रज्जु-सर्प की भांति मेरे लिए नहीं है। सुख-दुःख, आशा-निराशा, जीवन-मृत्यु में समान हूँ। तथा मुक्त हूँ ऐसा भाव हो। मैं आकाश की भांति अनन्त हूँ। यह संसार घडे़ के भांति प्रकृतिजन्य है इसलिए न इसका त्याग है, न ग्रहण है, और न लय है। समस्त भूत-प्राणियों में कहीं भी परम-तत्त्व नहीं है न ही परम-तत्त्व में समस्त भूत-प्राणी हैं। मैं तो मात्र समुद्र के भीतर स्थित जलयुक्त घडा़ हॅूं। इस प्रकार न मेरा कोई ग्रहण है, न त्याग है, न लय है।
                      मुझ अन्तहीन महासमुद्र में विश्वरूपी नाव अपनी ही प्राकृत वायु से इधर-उधर डोलती है। मुझमें अ-सहिष्णुता नहीं है। मुझ अन्तहीन महासमुद्र में जलरूपी लहर स्वभाव से ही उठती है, शान्त हो जाती है। अतः न वृद्धि है न ह्रास है। संसार कल्पना मात्र है। मैं अत्यन्त षान्त हूँ; अनासक्त हूँ, स्पृहा मुक्त हूँ और मैं इसी अवस्था में हूँ। मैं चैतन्य मात्र हूँ।
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                                        क्या किया जाय ?

               परम सिद्धि प्राप्त करने हेतु अपरोक्षानुभूति के द्वारा परमात्मा के साथ एकात्म भाव प्राप्त करने के लिए जीवन में एक बार अपनी पूरी ताकत को समर्पण-भाव से गुरु-शरण में झोंक दिया जाय। इस कार्य के लिए तत्त्वानुसंधान-कर्ता तथा तत्त्ववेत्ताओं से मिले। समर्पण भाव से परमतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करे। तत् पाश्चात् जो इच्छा हो जैसे
  
                                                           (51)

जीवन यापन करना हो वैसा करे। जिज्ञासु का कर्तव्य होता है कि वह तत्त्ववेत्ता के शरण में रहकर तद्भाव भावित होकर उसके नीति निर्देशानुसार गतिशील हो। यदि ऐसा सम्भव नहीं हो सके तो जीवन मुक्त हो कर स्वयं का मैं - मेरा त्याग कर यत्र-तत्र विचरण करता रहे तथा आत्मभाव में इस प्रकार स्थित रहे।      
                          ----------------- ‘‘मैं’’ बहुत काल से देहाभिमान के पास में बंधा हुआ था। उस पाश को मैं बोध हूँ ; इस ज्ञान की तलवार से काटकर सुखी हूँ। मैं सब का द्रष्टा हूँ और सचमुच मुक्त हूँ । मेरा बन्धन यही है कि मैं स्वयं को छोड़ कर अन्य को देखता हूँ। मैं अहंकार रूपी काले सर्प से दंशित हुआ मैं कर्ता नहीं हूँ ; ऐसे विश्वास - रूपी अमृत पी चुका हूँ। जैसी मति होती है वैसी गति होती है; यह किंवदन्ती सत्य है। मुक्ति का अभिमानी मुक्त है और बद्ध का अभिमानी बद्ध। ’’
                                                  हरि  ॐ तत् सत्
                                                  हरि  ॐ तत् सत्
                                                  हरि  ॐ तत् सत्
             
                                                            (52)

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